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पवनन्दिपञ्चविंशतिका ।
दृष्टिवोधचरित्रेषु तदत्सु समयाश्रितैः ॥२९॥ अर्थः--जो जिनेन्द्र के सिद्धान्तके अनुयायी हैं उन भव्यजीवोंको योग्यतानुसार, जो उत्कृष्टस्थानमें रहनेवाले हैं ऐसे परमेष्ठियोंमें विनय अवश्य करनी चाहिये तथा सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्वारित्रमें और इनके धारणकरनवालेमहात्माओंमें मी अवश्य विनय करना चाहिये ॥
भावार्थ:--जो मनुष्य जिनेन्द्रसिद्धान्तके भक्त हैं तथा धर्मात्मा हैं उनको समसरणलक्षमीकरयुक्त, और चारघातियाकर्मीको नाशकर केवल ज्ञान आदि अनन्त चतुष्टय के धारी, श्रीअर्हन्त परमेष्ठीमें, तथा समस्त कर्मीको नाशकर लोकके शिखरपर विराजमान और अनन्त ज्ञानादि आठगुणोंकर सहित सिद्धपरमेष्ठीमें, तथा दर्शनाचार ज्ञानाचार आदि पांचआचारोंको स्वयं आचरण करनेवाले और अन्योको भी आचरण करानेवाले ऐसे आचार्य परमेष्ठीमें, तथा ग्यारह अंग चौदहपूर्वके पढ़ने पढ़ाने के अधिकारी ऐसे उपाध्याय परमष्ठीमें, और रत्नत्रयको धारणकर मोक्षके अभिलाषी ऐसे साधुपरमेष्ठीमें, अवश्य विनय करनी चाहिये उसीप्रकार सम्यक्दर्शन सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रयमें तथा उसरत्नत्रयके धारणकरनेवालों में भी अवश्य विनय करनी चाहिये ॥२९॥
दर्शनज्ञानचारित्रतपःप्रभृति सिध्यति
विनयेनेति तं तेन मोक्षदारं प्रचक्षते ॥३०॥ ___अर्थः-विनयसे सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र तथा तप आदिकी प्राप्ति होती है इसलिये उस विनयको गणधर आदि महापुरुष मोक्षका हार कहते हैं अतः मोक्षके अभिलाषीभव्योंको यह विनय अवश्य करनी चाहिये ॥ ३॥
सत्पात्रेषु यथाशक्ति दानं देयं गृहस्थितैः
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