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१२.२॥
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पचनन्दिपञ्चविंशतिका। पर्वखथ यथाशक्ति भुक्तित्यागादिकं तपः
वस्त्रपूतं पिवेत्तोयं रात्रिभोजनबर्जनम् ॥२५॥ अर्थः--अष्टमी चतुर्दशीको शक्तिके अनुसार उपवास आदितप, तथा छनेहुए जलका पान, और रातको भोजनका त्याग भी गृहस्थोंको अवश्य करना चाहिये ।। २५ ॥
तं देशं तं नरं तत्खं तत्कर्माण्यपि नाश्रयेत्
मलिनं दर्शनं येन येन च व्रतखण्डनम् ॥२६॥ अर्थः-सम्यग्दृष्टिश्रावक ऐसे देशको तथा ऐसे पुरुषको और ऐसे धनको तथा ऐसी क्रियाको कदापि आश्रयण नहीं करते जहाँपर उनका सम्यग्दर्शन मलिन होवे तथा व्रतोंका खंडन होवे ॥ २६ ॥
भोगोपभोगसंख्यानं विधेयं विधिवत्सदा
व्रतशून्या न कर्तव्या काचित्कालकला बुधैः ॥२७॥ अर्थः-आचार्य उपदेश देते हैं कि श्रावकोंको भोगोपभोगपरिमाणवत सदा करना चाहिये और विद्वानोंको एकक्षण भी बिना ब्रतके नहीं रहना चाहिये ॥ २७ ॥
रत्नत्रयाश्रयः कार्यस्तथा भव्यैरतन्द्रितैः
जन्मान्तरेऽपि यच्छ्रद्धा यथा संवर्धमेततरा ॥२८॥ अर्थः-आलस्यरहित होकर भब्यजीवोंको उसीरीतिसे रत्नत्रयका आश्रय करना चाहिये जिससे दूसरे ५ जन्मोंमें भी उसकी श्रद्धा बढ़तीही चाली जावे ॥ २८ ॥
विनयश्च यथायोग्यं कर्तव्यः परमेष्ठिषु
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