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पचनन्दिषश्चविंशतिका ।
ये पठन्ति न सच्छास्रं सद्गुरुप्रकटीकृतम्
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तेन्थाः सचक्षुषोपीह सम्भाव्यन्ते मनीषिभिः ||२०||
अर्थः—जो मनुष्य उत्तम और निष्कलंक गुरुओंसे प्रकट कियेहुये शास्त्रको नहीं पढ़ते हैं उनमनुष्यों को विद्वानपुरुष नेत्रधारी होनेपर भी अन्धेही मानते हैं ।
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भावार्थ:- - वस्तुका स्वरूप यथार्थरतिसे शास्त्रसे जानाजाता है किन्तु जो मनुष्य शास्त्रको न तो देखते है और न वांचते ही हैं वे मनुष्य वस्तुके यथार्थ स्वरूपको भी नहीं जानते हैं इसलिये नेत्रसहित होनेपर भी वे अंधेही हैं अतः भव्यजीवोंको शास्त्रका स्वाध्याय तथा मनन अवश्य करना चाहिये ॥ २० ॥
मन्ये न प्रायशस्तेषां कर्णाथ हृदयानि च
यैरभ्याशे गुरोः शास्त्रं नश्रुतं नावधारितम् ॥२१॥
अर्थः- आचार्य कहते हैं जिनमनुष्योंने गुरूके पासमें रहकर न तो शास्त्रको सुना है तथा हृदय में धारणभी नहीं किया है उनके कान तथा मन नहीं हैं ऐसा प्रायकर हम मानते हैं ॥ २१ ॥
भावार्थ:: -कान तथा मनकी प्राप्तिका सफलपना शास्त्र के सुननेसे और उसके अभिप्रायको मनमें धारण करनेसे होता है किन्तु जिनमनुष्योंने कानपाकर शास्त्रका श्रवण नहीं किया है तथा मन पाकर उसका अभिप्राय भी नहीं समझा है उन मनुष्योंके कान तथा हृदयका पाना न पानासरीखाही है इसलिये विद्वानोंको शास्त्रका श्रवण तथा उसका मनन अवश्य करना चाहिये जिससे उनके कान तथा हृदय सफल समझे जावें ॥ २१ ॥
| अब आचार्य संयमनामक आवश्यकका कथन करते हैं H
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