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पचनन्दिपश्चविंशतिका अर्थः-भव्यजीवोंको प्रातःकाल उठकर जिनेंद्रदेव तथा गुरुका दर्शन करना चाहिये और भक्तिपूर्वक उनकी वंदना स्तुति भी करनी चाहिये और धर्मका श्रवण भी करना चाहिये इनके पीछे अन्य गृह आदि संबंधी कार्य करने योग्य है क्योंकि गणधर आदि महापुरुषोंने धर्म अर्थ काम मोक्ष इनचार पुरुषार्थों में धर्मका ही सबसे प्रथम निरूपण किया है तथा उसीको मुख्यमाना है॥ ११ ॥ १७ ॥
गुरोरेव प्रसादेन लभ्यते ज्ञानलोचनम्
समस्तं दृश्यते येन हस्तरेखेव निस्तुषम् ॥१८॥ अर्थः-जिस केवलज्ञानरूपीलोचनसे समस्तपदार्थ हाथकी रेखाकेसमान प्रकटरीतिसे देखने आते है ऐसा ज्ञानरूपीनेत्र निर्ग्रथगुरुओंकी कृपासेही प्राप्त होता है इसलिये ज्ञानके आकांक्षी मनुष्योंको भक्तिपूर्वक गुरुओंकी सेवा वंदना आदि करनी चाहिये ॥ १८॥
ये गुरुं नैव मन्यन्ते तदुपास्ति न कुर्वते
अंधकारो भवेत्तेषामुदितेऽपि दिवाकरे ॥१९॥ अर्थ:-जो मनुष्य गुरुओंको नहीं मानते हैं और उनकी सेवा वंदना नहीं करते हैं उन मनुष्यों केलिये सूर्यके उदय होनेपर भी अंधकारही है।
भावार्थः-जो मनुष्य परिग्रहरहित तथा ज्ञान ध्यान तपमेंलीन गुरुओंको नहीं मानते हैं तथा उनकी उपासना भक्ति आदि नहीं करते हैं उनपुरुषोंके अंतरंगमें अज्ञानरूपी अंधकार सदा विद्यमान रहता है इसलिये सूर्यके उदयहोनेपर भी वे अन्धेही बने रहते हैं अतः भव्यजीवोंको चाहिये कि वे अज्ञानरूपअंधकारके नाशकरनेकेलिये गुरुओंकी सेवा करै ।। १९ ॥
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