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पचनन्दिपश्चशितिका । अर्थः-यह एकत्वसप्ततिरूपीगंगानदी अत्यंत उन्नत ऐसे श्रीपद्मनन्दीनामकहिमालयपर्वतसे पैदा हुई है तथा मोक्षपदरूपीसमुद्र में जाकर मिली है इसलिये जोभव्यजीव उसनदी में स्नान करते हैं इनके समस्तमलों नाशहोजाते हैं और वे अत्यन्त विशुद्ध होजाते हैं।
भावार्थः--जो भव्यजीव इस एकत्वसप्ततिनामकअधिकारका चितवन मनन करते हैं उनके समस्त रागादि दोष दूर होजाते हैं अतः वे अत्यंत शुद्ध होजाते हैं और मोक्षके प्राप्तहोते हैं इसलिये उत्तमपुरुषोंको सदा इसका ध्यान चितवन करना चाहिये ॥ ७७ ।।
संसारसागरसमुत्तरणकसेतुमवं सतां सदुपदेशमुपाश्रितानाम् ।
कुर्यात्पदं मललवोऽपि किमन्तरङ्गे सम्यक् समाधिविधिसन्निधिनिस्तरङ्गे ॥ ७८ ॥ __ अर्थः--जिन सज्जनपुरुषोंने संसारसमुद्रसे पारकरनेमें पुलके समान इस उत्तम उपदेशका आश्रय कियाहै उनसजनपुरुषों के उत्तमआत्मध्यानके करनेसे क्षोमरहितअंतरंगमें किसप्रिकारका रागादिमल नहीं रहसक्ता
भावार्थ:-इस एकलअधिकारके उपदेशसे जिन भव्यजीवोंका मन अत्यन्तनिर्मल होगया है उन भव्यजीवोंके मनमें किसीप्रकारका मल-प्रवेश नहीं करसक्ता ॥ ७८ ॥ निर्मलचित्तहोकर ज्ञानी ऐसा विचार करता है।
शार्दूलविक्रीदित । आत्मा भिन्नस्तदनुगतिमत्कर्म भिन्नं तयोर्या प्रत्यासत्तेर्भवति विकृतिः सापि भिन्ना तथैव । कालक्षेत्रप्रमुखमपि यत्तच भिन्न मतं मे भिन्न भिन्नं निजगुणकलालकृतं सर्वमेतत् ॥ ७९ ॥
अर्थ:-यह ज्ञानस्वरूप मेरा आत्मा मिन है और उसके पीछे चलनेवाला कर्म भी भिन्न है तथा कर्म
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