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पचनान्दपश्चविंशतिका । साम्यं निश्शेषशास्त्राणां सारमाहर्विपश्चितः ।
साम्यं कर्ममहादावदाहे दावानलायते ॥ ६८॥ अर्थः-समस्तशास्त्रोंका सारभूत यह साम्यही है और यही साम्य समस्तकर्मरूपीवनके जलानेमें दावानल के समान है ऐसा गणघर आदि देव कहते हैं।
भावार्थः--शास्त्रके अध्ययनकरनेसे समताकी प्राप्ति होती है तथा समताके होने पर समस्तकमौका नाश होजाताही इसलिये भव्यजीवोंको साम्यकी और अवश्य ऋजु होना चाहिये ॥ ६८॥
साम्यं शरण्यमित्याहुयोगिनां योगगोचरम् ।।
उपाधिरचिताशेष दोषक्षपणकारणम् ॥ ६९ ॥ अर्थः--और यह साम्यही समस्तदुःखोंके दृरकरने में समर्थ है तथा ध्यानीपुरुषही इसका ध्यान करते हैं और यह साम्यही आत्मा और कर्माके संबंधसे उत्पन्नहुवे जो रागादिदोष उनको सर्वथा नष्टकरने वाला है इसलिये भव्यजीवोंको सदा साम्यकाही मनन करना चाहिये ।। ६९ ।।
निस्पृहायाणिमाद्यब्जखण्डे साम्यसरोजुषे ।
इंसाय शुचये मुक्तिहंसीदत्तदृशे नमः॥ ७० ॥ अणिमा महिमा आदि रूपजो कमलखण्ड उसकी जिसके अंशमात्रभी इच्छा नहीं है तथा जो समतारूपीसरोवरमें सदा प्रीतिपूर्वक रमण करनेवाला है और जिसकी दृष्टि मोक्षरूपी हंसीमें लगी हुई है और जो अत्यंतपवित्र है ऐसे परमहंस उसशुद्धात्माकेलिये मेरा नमस्कार है ॥ ७० ॥
ज्ञानिनोमृतसंगाय मृत्युस्तापकरोऽपि सन् ।
Ni॥१८५
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