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॥१८॥
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पअनन्दिपश्चविंशतिका । भी मोहसे पैदाहुई इच्छा होजावे तो बही जब मोक्षके रोकनेवाली हो जाती है तब शान्त तथा मोक्षभिलाषी मनुष्य अन्यपदार्थों केलिये कैसे इच्छा करसक्ते हैं ! ॥ ५३ ॥ ज्ञामीमनुष्य इसबातका बिचार करते हैं ।
अहं चैतन्यमेवैकं नान्यक्किमपि जातुचित् ।
सबन्धोऽपि न केनापि दृढ़पक्षो ममेदृशः ॥ ५४॥ अर्थः-मैं एक चैतन्यस्वरूपही हूं चैतन्यसे भिन्न नहीं हूं और मेरा निश्चयनयसे किसी दूसरे पदार्थ केसाथ संबन्ध भी नहीं है यह मेरा प्रवल सिद्धान्त है ॥ ५४ ॥
शरीरादिवहिश्चिन्ताचक्रसम्पर्कवर्जितम् ।
विशुद्धात्मस्थितं चित्तं कुर्वन्नास्तेनिरन्तम् ॥ ५५॥ अर्थः-बाधशरीर आदि पदार्थों की चिन्ता छोड़कर रागद्वेष आदिमलोंसे रहित तथा निर्मल अपनी आत्मामें ही चित्त को लगाते हैं ॥ ५५ ॥
एवं सति यदेवास्ति तदस्तु किमिहापरैः।
आसाद्यात्मन्निदं तत्वं शान्तो भव सुखी भव ॥ ५६ ॥ अर्थः-इसप्रकार पूर्वोक्ततिसे आत्माके चितवनसे जो होता है सो हो दूसरे २ विचारों से क्या प्रयोजन है इसप्रकार के वास्तविकस्वरूपको प्राप्त होकर अरे आत्मा तू शान्त हो तथा सुखी हो इसप्रकार ज्ञान अपनी आत्माको शिक्षा देता रहता है ।। ५६ ।।
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