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॥१६७in
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पचनन्दिपश्चविंशतिका । लब्धिपञ्चकसामिग्रीविशेषात्पात्रतां गतः ।
भव्यः सम्यग्दृगादीनां यः सः मुक्तिपथे स्थितः॥१२॥ अर्थः--जिसको सिही होनेवाली है ऐसा जो भव्य, वह देशना १ प्रयोग्य २ विशुद्धि ३ क्षयोयशम ४ तथा करणलब्धि इसप्रकार इन पांचलब्थिस्वरूप सामिग्रीके विशेषसे सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र रूपी रत्नत्रयका पात्र बनता है अर्थात् रत्नत्रयको धारण करता है वही मोक्ष में स्थित है ऐसा समझना चाहिये।
भावार्थः-सत्य उपदेशका नामतो देशना है तथा पंचेंद्रीपना सैनीपना गर्भजपना मनुष्यपना ऊंचा कुल यह प्रायोग्य नामक लब्धि है तथा सर्वघातीप्रकृतियोंकातो उदयाभावीक्षय तथा देशघाती प्रकृतियों का उपशम यह क्षयोपशमलब्धि है तथा परिणामोंकी विशुद्धताकानाम विशुद्धिलब्धि है और अधःकरण अपूर्वकरण अनिवृतिकरण यह करणलाब्ध है इन पांचप्रकारकी लब्धियोंके विशेषसे जो रत्नत्रयकाधारी है वही भव्यपुरुष शीघ्र मुक्तिको जाता है ॥ १२ ॥
सम्यग्दृग्बोधचारित्रं त्रितयं मुक्तिकारणम्।
मुक्तावेव सुखं तेन तत्र यत्नो विधीयताम् ॥ १३ ॥ अर्थः-सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र इन तीनोंका समुदायही मुक्तिका कारण है और वास्तविक सुखकी प्राप्ति मोक्षमें ही है इसलिये भव्यजीवोंको उसीकेलिये प्रयत्न करना चाहिये ॥ १३ ॥ आचार्य सम्यग्दर्शनादिका स्वरूप दिखाते हैं।
दर्शनं निश्चयः पुसि बोधस्तद्वोध इष्यते । स्थितिरत्रैव चारित्रमितियोगः शिवाश्रयः ॥ १४ ॥
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