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पचनन्दिपश्चविंशतिका । अर्थः-सम्यग्दृष्टी इसप्रकारका चितवन करता रहता है कि जो वस्तु संयोगसे उत्पन्न हुई हैं वे सब मुझसे जुदी है तथा मुझे इसवातका ज्ञान है कि उनसंयोगसे पैदा हुई समस्तवस्तुओंके त्यागसे मैं मुक्त हूं मेरीआत्मामें किसीप्रकारके कर्मका संबंध नहीं है ॥ २७ ॥
किं मे करिष्यतः क्रूरौ शुभाशुभनिशाचरौ ।
रागद्वेषपरित्यागमोहमन्त्रेण कीलितौ ॥ २८ ॥ अर्थः-रागद्वेषरूपीपवलमंत्रसे कीलितहुवे तथा क्रूर ऐसे शुभ तथा अशुभ कर्मरूपी राक्षस मेरा क्या करेंगे ? कुछ भी नहीं करसक्ते ॥
भावार्थ:--रागद्वेषके होनेसे ही शुभ तथा अशुमकोका वंध होता है यदि रागद्वेषका ही संबंध मेरी आत्माके साथ न रहैगा तो मेरा शुभ तथा अशुभकर्म कुछ भी नहीं करसक्ते ऐसा सम्यग्दृष्टि विचार करता रहता है
सवन्धेपि सति त्याज्यौ रागदेषौ महात्मभिः ।
विना तेनापि ये कुर्युस्ते कुर्युः किं न वातुलाः॥२९॥ अर्थः--सजनोंको चाहिये कि रागद्वेषके संबंध होनेपर भी वे रागद्वेषका त्यागकरदेवे किन्तु जो लोग संवंधके न होने परभी रागद्वेषको करते हैं वे मनुष्य समस्त अनिष्टों को पैदा करते है।
भावार्थः-रागद्वेष के होते संते अनेक प्रकारके अनिष्ट होते हैं इसलिये सज्जनोंको कदापि रागी तथा हेषी नहीं बनना चाहिये ॥ २९ ॥
मनोवाकायचेष्टाभिस्तद्विधं कर्म जृम्भते । उपास्यते सदेवेकं तेभ्योभिन्नं मुमुक्षुभिः ॥ ३०॥
1१७२॥
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