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पद्यनन्दिपश्नावशतकी। आत्मा और ज्ञान एकही पदार्थ है ऐसा अनुभव गोचर है ॥ ३७ ॥
क्रियाकारकसंवन्धप्रवन्धोज्झित मूर्तियत् ।
एवं ज्योतिस्तदेवैकं शरण्यं मोक्षकांक्षिणाम् ॥ ३८॥ अर्थः-जो चैतन्यरूपी तेज क्रिया और कारकके संबंधकी रचनाकर रहित है वही एक मोक्षाभिलाषी भव्यजीवोंका परमशरण है ॥
भावार्थ:-क्रिया कारकके संबंधकर रहित, तथा एक ऐसे चैतन्यस्वरूप तेजकी जो भव्यजीव उपासना करते हैं उनको मोक्ष मिलती है इसलिये भव्यजीवोंको ऐसे चैतन्यकी ही सदा उपासना करनी चाहिये ॥३८॥
तदेकं परमं ज्ञानं तदेकं शुचि दर्शनम् ।
चारित्रं च तदेकं स्यात् तदेकं निर्मलं तपः ॥ ३९ ॥ अर्थः-वह चैतन्यस्वरूप शुद्ध आत्माही तो ज्ञान है तथा वही दर्शन है और वही चारित्र है तथा वही तप है किन्तु उसशुहात्मासे भिन्न न कोई ज्ञान है तथा न कोई दर्शन है और न कोई चारित्र है तथा न कोई तपही है इसलिये भव्यजीवोंको आत्माकाही ज्ञान श्रहाम आचरण आदि करना चाहिये ॥ ३९ ॥
नमस्यञ्च तदेवैकं तदेवैकञ्च मंगलम् ।
उत्तमञ्च तदेवैकं तदेव शरणं सताम् ॥ १०॥ अर्थः-वही एक चैतन्यस्वरूप आत्मा नमस्कार करने योग्य है तथा वही मंगलस्वरूप है और वही सर्व पदार्थों में श्रेष्ट है तथा वही भव्यजीवोंका शरण है॥ ४॥
आचारश्च तदेवैकं तदेवावश्यकक्रिया।
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