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पअनन्दिपञ्चविंशतिका । बुद्धि है वह असिद्धि है अर्थात् निजानन्द शुद्ध अद्वैतस्वरूपकी रोकनेवाली है ॥ ३३ ॥
उदयोदीरणासत्ता प्रवन्धः खलु कर्मणः ।।
वोधात्मधाम सर्वेभ्यस्तदेवैकं परं परम् ॥ ३४ ॥ अर्थः--उदय उदीरणा तथा सत्ता इत्यादि समस्त कौकी ही रचना है किन्तु आत्मा इससमस्तरचना से भिन्न है उत्कृष्ट है तथा केवलज्ञानका धारी है ॥ ३४ ॥
क्रोधादिकर्मयोगेऽपि निर्विकारं परं महः।
विकारकारिभिर्भेद्यैर्न विकारि नभोभवेत् ॥ ३५॥ अर्थ-काले पीले नीले घोड़ाके आकार हाथीके आकार इत्यादि अनेकविकारसहित बादलोंसे जिस प्रकार अमूर्तीक आकाश विकृत नहीं होता उसीप्रकार यद्यपि आत्माके साथ क्रोध आदि कर्मोंका संबंध है तो भी आत्मा विकार रहित ही है ॥ ३५ ॥
नामापिहि परं तस्मान्निश्चयात्तदनामकम् ।
जन्ममृत्यादिचाशेषं वपुर्धर्म विदुर्बुधाः ॥ ३६॥ अर्थः-निश्चयनयसे आत्माका कोई नाम नहीं है वह नाम रहितही है और जो ये जन्म मरण आदि धर्म हैं वे शरीरके ही धर्म हैं ऐसा बड़े २ विद्वान् कहते हैं ॥ ३६ ॥
बोधेनापि युतिस्तस्य चैतन्यस्यतु कल्पना ।
सच तच्च तयोरैक्यं निश्चयेन विभाव्यते ॥ ३७॥ अर्थः-आत्मा ज्ञानकर सहित है यह तो चैतन्यस्वरूपआत्मामें कल्पनाही है क्योंकि शुद्धनिश्चयनयसे HS१७४॥
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