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॥१७॥
पचनन्दिपश्चविंशतिका । अर्थः-इसलिये भव्यजीवोंको निश्चयसे एक चैतन्यस्वरूपही जाननेयोग्य है तथा वही एक सुनने योग्य है और वही देखने योग्य है किन्तु उससे भिन्न कोई भी वस्तु न तो जानने योग्य है तथा न सुनने योग्य है और न देखनेही योग्य है ऐसा समझना चाहिये ॥ २१ ॥
गुरूपदेशतोऽभ्यासाद्वैराग्यादुपलभ्य यत् ।।
कृतकृत्यो भवेद्योगी तदेवैकं नचापरम् ॥ २२ ॥ अर्थः-गुरुके उपदेशसे तथा शास्त्रके अभ्याससे और वैराग्यसे जिप्तको पाकर योगीश्वर कृतकृत्य हो जाते हैं वह यही चैतन्यस्वरूपतेज है और कोई नहीं है ।। २२ ।।
तत्पति प्रीतिचित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता ।
निश्चितं स भवेद्भव्यो भाविनिर्वाणभाजनम् ॥ २३ ॥ अर्थः--जिसमनुष्यने प्रसन्नचित्तसे इसचैतन्यस्वरूपआत्माकी वातभी सुनली है वहभव्यपुरुष होने वाली मुक्तिका निश्चयसे पात्र होता है अर्थात वह नियमसे मोक्षको जाता है इसलिये मोक्षाभिलाषियोंको अवश्य ही इसचैतन्यस्वरूप आत्माका अनुभव करना चाहिये ॥ २३ ॥
जानीते यः परं ब्रह्म कर्मणः पृथगेकताम्।
गतं तद्गतवोधात्मा तत्स्वरूपं स गच्छति ॥ २४ ॥ अर्थः-जो मनुष्य शुद्धात्मामें लीनहोकर कर्मोसे भिन्न तथा एक ऐसे उसपरमब्रह्मपरमात्माको जानता है वह पुरुष परब्रह्मस्वरूपही होजाता है इसलिये भव्य जीवोंको परमात्माका अवश्य ध्यानकरना चाहिये ॥२४॥
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