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पद्यनन्दिपञ्चविंशतिका । पद्मनन्दी नामक मुनि उत्तमोत्तमवर्गों की रचनासे ५२ श्लोकों में दानका प्रकरण ममाप्त करता हुआ ॥५॥
इति श्रीपद्मनन्दिमुनिहारा विरचित श्रीपदानन्दिपञ्चविंशत्तिकानामक
ग्रन्थमें दानोपदेशनामक द्वितीय अधिकार समाप्त हुआ । अब आचार्य अनित्य पञ्चाशतनामक अधिकारको वर्णन करतेहुवे प्रथम मंगलाचरण करते हैं ।
आर्यो। जयति जिनो धृतिधनुषामिषुमाला भवति योगियोधानाम् ।
यदाकरुणामय्यपि मोहरिपुषहतये तीक्ष्णा ॥१॥ अर्थ-दयामयी भी जिस जिनेन्द्रकी बाणी धैर्यरूपी धनुषको धारण करनेवाले योगीरूपी योधाओंके मोहरूपी बैरीके नाशकरनेकेलिये पैनी चाणोकी पंक्तिकेसमान है वह जिनेन्द्र इससंसारमें सदा जयवन्त है।
भावार्थ:--जो दयामय होता है वह किसीका नाश नहीं करसक्ता किन्तु भगवानकी वाणीमें यह विचित्रता है कि दयामयी होने परभी वह योगियोंके मोहको पलभरमें नाश करदेती है इसलिये एसी आश्चर्यकारी वाणीके धारी जिनेन्द्र सदा इससंसारमें जयवन्त हैं ॥ १ ॥
अब आचार्य मनुष्यदेहका अनित्यपना दिखाते हैं।
शालविक्रीडित । यद्यकत्रे दिने न भुक्तिरथवा निद्रा न रात्रौ भवेत् विद्रात्यम्वुजपत्रवद्दहनतोभ्याशस्थिताद्यद्भवम् । अस्रव्याधिजलादितोऽपिसहसा यच्च क्षयं गच्छति भ्रातःकात्रशरीरके स्थितिमातिनाशेऽस्यकोविस्मयः॥
अर्थः--यदि एकदिन वाया न जाय अथवा रात्रिमे सोया न जाय तो यह शरीर पासमें रही हुई अग्नि
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४१३६॥
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