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॥ १६०॥
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पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका ।
तत्र कीटकके समान निर्बल तथा थोड़ी आयुवाले अन्यजनकी क्या वात ? अर्थात् वह तो अवश्यही मरेगा इसलिये आचार्य उपदेश देते हैं कि अपने प्रिय स्त्री, पुत्र, आदिकं मरनेपर शोक न करके कोई ऐसा काम करो जिससे तुमको फिर न मरना पड़े ॥ ५१ ॥
संयोगो यदि विप्रयोगविधिना वेज्जन्म तन्मृत्युना सम्पचेद्रिपदा सुखं यदि तदा दुःखेन भाव्यं ध्रुवम् । संसारेऽत्र मुहुर्मुहुर्बविधावस्थान्तरप्रोल्लसद्वेषान्यत्वनटीकृताङ्गिनि सतः शोको न हर्षः कचित् ॥
अर्थः- जिस संसार में यह जीववारंवार नानाप्रकारकी जो दूसरी २ अवस्था उनमें नारकी, पशु, देव, आदिक नानावेषोंको धारणकर नटके समान स्थित है उससंसार में यदि संयोग वियोग के साथ लगाहुवा है तथा जन्म मरणके साथ और संपत्ति विपत्ति के साथ लगी हुई है और सुख दुःखके साथ लगा हुवा है तब विद्वानों को नतो किसी पदार्थमें शोक करना चाहिये न हर्षही करना चाहिये ॥
भावार्थः — इस संसार में अपने कर्मके अनुसार जीव एकगतिसे दूसरीगतिमें जाकर नानाप्रकारके देव, मनुष्य, पशु, आदिक वेषों को भी धारण करते हैं और जिन २ पदार्थों का संयोग है उनका वियोग भी अवश्य होता है तथा जो उत्पन्न होता है वह अवश्य मरताभी है और जो धनी है वह निर्धन भी अवश्य होता है तथा जो सुखी है वह दुःखी भी अवश्य होता है, इसलिये आचार्य उपदेश देते हैं कि जो मनुष्य इसप्रकारके संसार के चरित्रको जानते हैं उनको संयोग संपति सुख आदिके होनेपर न तो हर्ष मानना चाहिये तथा वियोग विपत्ति दुःख आदिके होने पर शोक भी नहीं करना चाहिये ॥ ५२ ॥ लोकाश्चेतसि चिन्तयन्त्यनुदिनं कल्याणमेवात्मनः कुर्यात्सा भवितव्यता गतवती तत्तत्र यद्रोचते । मोहोल्लासवशादतिप्रसरतो हित्वा विकल्पान्वहून्रागद्वेषविषोज्भितैरिति सदा सद्भिःसुखंस्थीयताम् ॥
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