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पअनन्दिपश्चविंशतिका । केचित् केन्येपि कारुण्यात्कथ्यमानमपि स्फुटम् ।
न मन्यन्ते न शृण्वन्ति महामोहमलीमसाः ॥६॥ अर्थः-प्रवलमोहनीयकर्मसे अज्ञानीहुवे अनेकमनुष्य उत्तमपुरुषोंकर बताये हुवेभी आत्मतत्वको न तो मानते ही हैं तथा न सुनते ही हैं ॥ ६ ॥
धुरि धर्मात्मकं तत्त्वं दुःश्रुतेर्मन्दबुद्धयः ।
जात्यन्धहस्तिरूपेण ज्ञात्वा नश्यन्ति केचन ॥७॥ अर्थः-यद्यपि वस्तु का स्वरूप अनेकान्तस्वरूप है तोभी अनेक जड़वुद्धीमनुष्य, जन्मांध जिसप्रकार हाथी के एक २ भागकोही हाथी समझलेते हैं तथा नष्ट होजाते हैं उसीप्रकार एकान्त स्वरूप मानकरही नष्ट होतेहैं ।
भावार्थ:-किसीसमय कई एक अन्धेमनुष्यों को इसवातकी अभिलाषा हुई कि हम हाथी देखें इस लिये उन्होंने एक महावतसे इसवातका निवेदन भी किया कि वह हमको हाथी दिखावे अतएव किसी दिन उस महावतने उनके सामने लाकर हाथी खड़ाकर दिया तथा कहा कि जो तुमने हाथी के देखनेकेलिये निवेदन कियाथा उसीके अनुसार यह हाथी तुम्हारे सामने खड़ा है इसे तुम देखो फिर क्याथा ? अन्धे दोड़े तथा एक २ अंगको टटोलने लगगये जब देखचुके तब उनमेंसे प्रत्येकको पूछा गया कि हाथी कैसा था तो उन मेंसे जिसने हाथीकी पूंछका स्पर्श कियाथा वह झट वोल निकला कि हाथी लंबेवांसके समान होता है जब दूसरे से पूछा गया कि भाई हाथी कैसा होता है तब उसने कहा कि हाथी लंचा २ नहीं है किन्तु चाकीके पाटके समान गोल है क्योंकि उसने हाथीके पैरहीका स्पर्श किया था। इसीप्रकार औरोंसे भी पूछागया तो उनमेंसे भी किसीने कैसा भी कहा किसीने किसी अंगको हाथी कहा तथा किसीने किसी अंगको हाथी कहा किन्तु हा के
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