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४६॥
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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । तदत्र भवमाश्रिते मृतिमुपागते वा जने प्रियेपि किमहो मुदा किमु शुचा प्रबुद्धात्मनः ॥
अर्थ:-यद्यपि द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा यह लोक सदा विद्यमान है तो भी पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षा मेघोंके समूह के समान यह क्षण २ में विनाशीक है इसलिये आचार्य उपदेश देते हैं कि हे बुद्धिमानपुरुषो इससंसारमें अपने प्रियमनुष्यके उत्पन्न होनेपर क्या तो हर्ष करने में रक्खा है? तथा नियमनुष्यके मरजानेपर क्या शोक करने में रक्खा है ? अर्थात् तुम्हारा हर्ष तथा शोक करना विना प्रयोजनका है ॥ २१ ॥ लंष्यन्ते जलराशयःशिखरिणो देशास्तटिन्यो जनैः सा वेलातु मतेन पक्ष्मचलनस्तोकापि देवैरपि । तत्कस्मिन्नपि संस्थिते सुखकरं श्रेयो विहाय ध्रुवं कः सर्वत्र दुरन्तदुःखजनकं शोकं विदध्यात्सुधीः ॥
अर्थः--मनुष्य बड़े २ समुद्रोंको पार करजाते हैं तथा बड़े २ पर्वतोंका तथा देशोंका उल्लंघन करजाते हैं और विस्तृत नादियोंको भी तिरजाते हैं परन्तु मरणके समयको मनुष्योंकी क्या बात देव भी निमेषमात्र केलिये भी नहीं टाल सक्ते है इसलिये आचार्य कहते हैं कि ऐसा कोन बुद्धिमान पुरुष होगा ? जो किसी अपने प्रियमनुष्यके मरजानेपर समस्तप्रकारके कल्याणको देनेवाले उत्तमधर्मको न करके नानाप्रकारके नरकादिदुःखोंको देनेवाले शोक को करेगा।
भावार्थः--बुद्धिमानपुरुष अपने प्रिय किसी स्त्री पुत्र आदिके मरने पर धर्मका ही आराधन करते हैं क्योंकि वे समझते हैं कि धर्मही दुःखोंसे छुटाने वाला है किन्तु नानाप्रकारके दुःखोंके देनेवाले शोक की और झांक करके भी नहीं देखते २२ ॥ आक्रन्दं कुरुते यदत्र जनता नष्टे निजे मानुषे जाते यच्च मुदं तदुन्नतधियो जल्पन्ति वातूलताम् । यजाब्यात्कृतदुष्टचोष्टितभवत्कर्मप्रवन्धोदयान्मृत्यूत्पत्तिपरम्परामयमिदं सर्वं जगत्सर्वदा ॥ २३ ॥
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