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पचनन्दिपश्चविंशतिका होना तथा नष्टहोना धर्मही ठहरा तव विद्वानोंको स्त्री पुत्र मित्र आदिके नाश होनेपर जिससे किसी प्रकारके हितकी आशा नहीं ऐसा खेद कदापि नहीं करना चाहिये ॥ २५ ॥
प्रियजनमृतिशोकः सेव्यमानोतिमात्रं जनयति तदसातं कर्म यच्चायतोऽपि ।
प्रसरति शतशाखं देहिनि क्षेत्र उप्तं वट इव तनुबीजं त्यज्यतां स प्रयत्नात् ॥ २७॥ अर्थ:-क्षेत्रमें वोया हुवा छोटाभी वटवृक्षका वीज जिसप्रकार शाखा प्रशाखा स्वरूपमें परिणत होकर फैलजाता है उसीप्रकार अपने प्रिय स्खी पुत्र आदिके मरने पर जो अत्यन्त शोक किया जाता है वह शोक उस असताकर्मको पैदा करता है कि जो असाता कर्म उत्तरोत्तर शाखा प्रशाखा रूपमें परिणत होकर फैलता चलाजाता है अर्थात् उसअसात कर्मके उदयसे नरक तिर्यञ्च आदि अनेक योनियों में भ्रमण करनेसे नानाप्रकार के दुःख सहने पडते हैं इसलिये आचार्य कहते हैं कि विद्वानोंको ऐसा शोक जैसे छूटै वैसे छोड़देना चाहिये॥२७॥
आर्या । आयुः क्षतिः प्रतिक्षणमेतन्मुखमन्तकस्य तत्र गता।
सर्वे जनाः किमेकः शोचत्यन्यं मृतं मूढः ॥२८॥ अर्थः--प्रतिसमय आयुका नाश होता है तथा यह आयुका नाशही यमराजका मुख है और उसमें अनेक जीव प्रविष्ट होचुकेहैं फिरभी यह अकेला अज्ञानी जीव अपने प्रियके मरनेपर नहीं मालूम क्योंशोक करताहे।
भावार्थ:--यदि आयुः कर्मका अंत न होता अथवा अनेक प्राणी न मरते तवतो इसजीवका शोक करना उचित होता किन्तु समय २ में आयुकर्मका नाश होता चला जारहा है तथा अनेक प्राणी
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