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Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनन्दिपत्रविशतिका । काल हमारे शिर पर छारहा है इसलिये विहानाको चाहिये कि इसप्रकार दोनोंलोकके बिगड़ने वाली लक्ष्मीके फंदेमें न पड़ें और उसको अपने हितकी करनेवाली भी न समझै ॥ ४४ ॥ मृत्योर्गोचरमागते निजजने मोहेन यः शोककृन्नो गन्धोऽपि गुणस्य तस्य वहवो दोषा पुनर्निश्चितम् । दुःखं बघत एव नश्यति चतुर्वर्गो मतेर्विभ्रमः पापं रुक्च मृतिश्च दुर्गतिरथस्थाद्दीर्घसंसारिता ॥
अर्थ:-जो मनुष्य अपने प्रियजनके मरजानेपर मोहके वशहोकर शोक करता है उसको किसीप्रकार गुणकी प्राप्ति तो होती नहीं किन्तु निशयसे उल्टे दोषही उत्पन्न होजाते हैं तथा दुःख पड़ता चला जाता है और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, ये चारो पुरुषार्थ नष्ट होजाते हैं तथा बावला होजाता है और उसके पाप तथा रोगोंकी उत्पत्ति भी होजाती है और अंतमें मरभी जाता है पीछे दुर्गतिरूपीरथमें बैठकर चिरकालतक संसारमें भ्रमण करता रहता है इसलिय विद्वानोंको कदापि शोक नहीं करना चाहिये ॥ ४५ ॥
आया । आपन्मयसंसारे क्रियते विदुषा किमापदि विषादः ।
कलस्यति लङ्गनतः प्रविधाय चतुष्पथे सदनम ॥ ४६॥ अर्थः-आचार्य कहते हैं कि यहसंसारतो आपत्तिस्वरूप है फिरभी नहीं मालूम वुद्धिमान पुरुष आपत्तिके आनेपर क्यों खद करते हैं क्योंकि जो चौरास्तेपर मकान बनाता है वह क्या उसके उल्लघन होने पर दुःखित होता है? कदापिनहीं ।
भावार्थ:-जो मनुष्य चौरास्तेपर मकान बनावेगा उसकोतो दुसरे पथिक लालंघन करके अवश्यही जायगे। यदि मकानका मालिक उल्लंघन करनेपर खेदकरै तो उसका खद करना व्यर्थहा है उसीप्रकार जो मनुष्य इस
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