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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । चीज न था तथा उसरावणको भी समुद्रको पारकर राम नामक न कुछ मनुष्यने मारदिया तथा वह रामभी कालवलीका प्रास वनगया इसलिये आचार्य कहते हैं कि समसे बलवान् संसारमें कोई भी नहीं ॥ २३ ॥ सर्वत्रोद्गतशोकदावदहनव्यासं जगत्काननं मुग्धास्तत्र बघूमुगीगतधियस्तिष्टन्ति लोकेणकाः । कालव्याध इमानिहन्ति पुरतःप्राप्तान्सदानिर्दयस्तस्माजीवति नो शिशुर्न च युवा वृद्धोऽपिनो कश्चन।।
अर्थः-आचार्य कहते हैं कि यहसंसाररूपीवनतो सब जगह उठाहवा जो शोकरूपीदावानल उसस व्याप्त होरहा है तथा इससंसाररूपीवनमें लोकरूपी जो मृग हैं वे स्त्री रूपी मृगीके वश होकर पड़े हुवे है
और यह कालरूपी व्याध आगे आये हवे उन लोकरूपीदीनमृगोंको सदाकाल मारता है जिससे नतो इस संसारमें कोई बालक सदा जीता है तथा न कोई युवा सदा जीता है और न कोई वृद्धही सदा जीता है ॥३४॥ संपचारुलतः प्रियापरिलसबालीभिरालिङ्गिन्तः पुत्रादिप्रियपल्लवो रतिसुखप्रायः फलेराश्रितः । जातः ससृतिकानने जनतरुः कालोपदावानलव्याप्तश्चेन्न भवेत्तदा बत वुधैरन्यत्किमालोक्यते॥३५॥
अर्थः---संपदारूपी मनोहर लताओंसे युक्त, तथा स्त्रीरूपीजो मनोहर वेल उससे आलिंगन कियाहुवा, और पुत्र आदिक उत्तमपल्लवोंका धारी, तथा रतिसे उत्पन्न हुवे जो सुख वही हुवे फल उनकर सहित, ऐसायह संसाररूपी वनमें पैदा हुवा मनुष्यरूपी वृक्षहै यह मनुष्यरूपीवृक्ष कालरूपी जो भयंकरदावानि उससे भस्म न होजावे इसकोलिये बुद्धिमानोंको अवश्य उसके सार्थक होनेकेलिये प्रयत्न करना चाहिये ॥
भावार्थ:-बड़ी कठिनतासे इसमनुष्यभवकी प्राप्ति हई है और इसमनुष्यजन्मके सिवाय निर्वाण का कारण और कोई उत्तम पदार्थ भी नहीं है इसलिये जप तप आदिकर इसमनुष्यजन्मको विहानाको सार्थक बनाना चाहिये अन्यथा यह व्यर्थ नष्ट होजावेगा ॥ ३५ ॥
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