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पचनन्दिपश्चविंशतिका ।
सम्प्राप्तेऽपि च बार्धके स्पृहयति प्रायो न धर्माय यत्तद्वभात्यधिकाधिकं स्वमसकृत् पुत्रादिभिर्बन्धनैः ॥ अर्थः — यह लोक, बहुतसे जीव मरगये इसवातको सुनता हुवा भी तथा बहुतोंको मरतेहुवे स्वयं देखता हुत्रा भी मोहसे आत्माको निश्चलही मानता है तथा वृद्धावस्था के आनेपर भी धर्मकी और कुछ भी लक्ष्य नहीं देता किन्तु उसअवस्था में भी पुत्र स्त्री आदिके 'बंधनसे' निरन्तर अपनेको और भी जादा वांधता है ॥ ३८ ॥ दुश्चेष्टा कृतकर्मशिल्पिरचितं दुःसन्धि दुर्बन्धनं सापायस्थितिदोषधातुमलवत्सर्वत्र यन्नश्वरम् । "आधिव्याधिजरामृतिप्रभृतयो' यच्चात्र चित्रं न तत्तच्चित्रं स्थिरता बुधैरपि वपुष्यत्रापि यन्मृग्यते ॥
अर्थः – जो देह, वुरी २ जो कियां उनकरके कियागया जो कर्म वही हुवा एकप्रकारका कारीगर उस करके बनाया हुवा है तथा खोटी सन्धि और खोटे बंधन कर सहित है और जिसकी स्थिति नाश कर सहित है तथा जो नानाप्रकारके दोष तथा मलमूत्र वीर्य आदि सात कुधातुओंकर संयुक्त है ऐसे देहमें यदि आधि, ब्याधि, जरा, मरण, आदिक होते हैं तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, किन्तु आश्चर्य इसत्रातका है कि विद्वान मनुष्य भी ऐसे शरीरको सर्वथा स्थिर मानते हैं ॥ ३९ ॥
लब्धा श्रीरिह वाञ्छिता वसुमती भुक्ता समुद्रावधिः प्राप्तास्ते विषया मनोहरतराः स्वर्गेऽपि ये दुर्लभाः । पश्चाच्चेन्मृतिरागमिष्यति ततस्तत्सर्वमेतद्विषाऽश्लिष्टं भोज्यमिवातिरम्यमपि धिङ्मुक्तिः परं मृग्यताम् ॥
अर्थः- इस संसार में वांछितलक्ष्मीभी प्राप्तकरली तथा सागरान्त पृथ्वीका राज्यभी भोगलिया और जो विषय स्वर्ग में भी नहीं प्राप्त होसके ऐसे अत्यन्तमनोहर विषय को भी पालिया किन्तु जिससमय मृत्युपासमें भा जावेगी उस समय अत्यन्तमनोहर भी ये सब बातें विषसंयुक्तभोजनके समान दुःखकी देनेवाली होजावेगी इस लिये इनकेलिये धिक्कारहो ऐसा विचारकर हे भव्य जीवो जहां पर किसीमकाराक दुःख नहीं ऐसी मुक्ति काही आश्रयकरो
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