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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । पुन: अपने कर्मके अनुसार मरकर नानाकुलोंमें जन्मळेते हैं ऐसी संसारकी स्थितिको जानकर विद्वान लोग कदापि शोक नहीं करते ॥ १६॥
शाकविक्रीड़ित । दुःखव्यालसमाकुलं भववनं जाड्यान्धकाराश्रितं तस्मिन्दुर्गतिपल्लिपातिकुपथैः भ्राम्यन्ति सर्वाङ्गिनः। तन्मध्ये गुरुवाक्यदीपममलज्ञानप्रभाभासुरं प्राप्यालोक्य च सत्पथं सुखपदं याति प्रबुद्धो ध्रुवम् ॥ १७॥
अर्थः-नानाप्रकारके दुःस्वरूपी सर्प और हस्तियोंकर व्याप्त, तथा अज्ञानरूपी अन्धकारसे युक्त, और नरक अदि गतिरूपीभीलोंके भयंकर मा!कर सहित, इससंसाररूपी वनमें समस्तप्राणी भटकते फिरते हैं किंतु उनप्राणियॉम चतुरमनुष्य निर्मलज्ञानरूपीप्रभासे देदीप्यमान ऐसे गुरुओंके वचनरूपीदीपकको पायकर तथा उसवचनरूपीदीपकके द्वारा उत्तममार्गको देखकर मोक्षपदको प्राप्त करलेता है।
भावार्थ:-दुःख तथा अज्ञान और खोटी गतियोंकर सहित इससंसारमें भटकतेहवे प्राणियोंकी सन्मार्ग के प्रकाशकरनेवाले गुरुओंके वचनही हैं इसलिये जो मनुष्य सच्चेमार्गको जानकर उत्तममोक्षपदको प्राप्त करना | चाहते हैं उनको गुरुओंके वचनोंपर अवश्य विश्वास करना चाहिये ॥ १७ ॥
बसन्ततिलका। यैव स्वकर्मकृतकालकलात्र जन्तुस्तत्रैव याति मरणं न पुरो न पश्चात् ।
मूढास्तथापि हि मृते स्वजने विधाय शोकं परं प्रचुरदुःखभुजो भवन्ति ॥ १८॥ अर्थः-पूर्वोपार्जित अपने कर्माकेद्वारा जो मरणका समय निश्चित होगया है उसीके अनुसार प्राणी मरता है आगे पीछे नहीं मरता ऐसा जानकरभी आत्मीयमनुष्यके मरनेपर अज्ञानीजन तोभी शोक करते हैं तथा नानाप्रकारके दुःखों को भोगते हैं ॥१८॥
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Khu४
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