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।।१२४३॥
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पद्मनन्दिपश्चविंशतिका ।
आदिका संबंध होता है वह पूर्वकालमें सञ्चय किये हुवे तेरे पापके उदयसेही होता है इसलिये तू शोक क्यों करता है ! उसपापका सर्वथा नाशकर, जिससे फिर तेरे भविष्यतमें इष्टवियोग तथा अनिष्टसंयोगका उदय न होवे ॥ शार्दूलविक्रीडित |
नष्टे वस्तुनि शोभनेऽपि हितदा शोकःसमारभ्यते तल्लाभोऽथ यशोऽथ सौख्यमथवा धर्मोऽथवा स्याद्यदि ! यद्येकोऽपि न जायते कथमपि स्फारैः प्रयत्नैरपि प्रायस्तत्र सुधीर्मुधा भवति कः शोकोग्ररक्षीवशः१५ अर्थः- प्रियभी वस्तुके नाशहोनेपर शोक तव करना चाहिये जब कि उसकी प्राप्ति हो जावे अथवा शोक करनेसे कीर्ति फैले अथवा सुख वा धर्म हो किन्तु अनेक बड़ेसे बड़े प्रयत्नोंके करनेपर भी उपर्युक्त वस्तुओं में से किसी भी वस्तुकी प्राप्ति नहीं दीखपड़ती इसीलिये विद्वानपुरुष इष्ट वस्तुके नाश होनेपर भी प्रायः कुछ भी व्यर्थ शोक नहीं करते ॥
भावार्थः—शोक करनेपर यदि गई हुई वस्तु फिरसे आजावे अथवा कीर्ति हो अथवा सुख तथा धर्म हो तबतो उसवस्तुकेलिये शोक करना उचित है परन्तु उनमेंसे तो एक भी वात नहीं होती फिर विद्वानोंको क्यों ! शोक करना चाहिये ॥ १५ ॥
बसन्ततिलका
एकद्रुमे निशि वसन्ति यथा शकुन्ताः प्रातः प्रयान्ति सहसा सकलासु दिक्षु ।
स्थित्वा कुले बत तथान्यकुलानि मृत्वा लोकाः श्रयन्ति विदुषा खलु शोच्यते कः ॥ १६ ॥ अर्थः- रात्रि के समय जिसप्रकार एकही वृक्षपर नानादेशसे आकर पक्षी निवास करते हैं तथा सवेरा होतेही शीघ्र वे जुदी २ दिशाओंमें जुदे २ होकर उड़जाते हैं उसीप्रकार बहुत से मनुष्य एककुलमें जन्म लेकर
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