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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । भावार्थ:-संसारमें यदि एकभी चीज नित्य अथवा सारभूत होती तवतो शोक करना व्यर्थ न होता किन्तु संसारमें तो समस्तवस्तु इन्द्रजाल और केलाके खम्भेके समान विनाशीक तथा निस्सार है फिर शोक करना सर्वथा व्यर्थ है इसलिये हे भव्यो उसप्रसिद्धरत्नत्रयका आराधनकरो जिससे तुमको मोक्ष आदि सुखकी प्राप्ति बिना कष्ट किये हुये ही होवे ॥ १२ ॥
बसन्ततिलका। जातो जनो नियत एव दिने च मृत्योः प्राप्ते पुनस्त्रिभुवनेऽपि न रक्षकोऽस्ति । तद्यो मृते सति निजेपि शुचं करोति पूतकृत्य रोदिति वने विजने स मूढ़ः ॥ १३ ॥ अर्थः--जो मनुष्य पैदा हवा है वह मरणके दिन अवश्यही मरता है तथा मरते समय तीनोंलोकमें उसकी कोई भी रक्षा नहीं करसक्ता है इसलिये आचार्य कहते हैं कि जो मनुष्य अपने प्रिय स्त्री | पुत्र आदिके मरने पर शोक करता है वह मनुष्य जहांपर कोई जन नहीं एसे बनमें जाकर फुका मार २ कर रोता है एसा जान पड़ता है।
भावार्थः-जहांपर कोई मनुष्य नहीं एसे स्थानमें रोना जिसप्रकार व्यर्थ होता है उसीप्रकार (मस्ने पर किसीकी कोई भी रक्षा नहीं करसक्ता इसवातको भलीभांति जानताहुवा भी) स्त्री पुत्र आदिके लिये जो शोक करता है उसका उसप्रकारका शोककरना भी वृथा है इसलिये विद्वानोंको कदापि ऐसा शोक नहीं करना चाहिये१३॥
इष्टक्षयो यदिह ते यदनिष्टयोगः पापेन तद्भवति जीव पुराकृतेन ।
शोकं करोषि किमु तस्य कुरु प्रणाशं पापस्य तौ न भवतःपुरतोऽपि येन ॥१४॥ अर्थः--आचार्य उपदेश देते हैं कि हे जीव यह जो तेरे इष्ट स्त्री पुत्र आदिका नाश तथा अनिष्ट सर्प
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॥१४२॥
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