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पअनन्दिपश्चविंशतिका ।
चाकविक्रीड़ित । दुर्लयाद्भवितव्यताव्यतिकरान्नष्टे प्रिये मानुषे यच्छोकः क्रियते तदत्र तमसि प्रारभ्यते नर्तनम् । सर्वे नश्वरमेव वस्तु भुवने मत्त्वा महत्या धिया निधूताखिलदुःखसन्ततिरहो धर्मः सदा सेव्यताम् ॥
अर्थः-जिसका दुःखसे भी उच्छंघन नहीं होसक्ता ऐसीजो भवितव्यता (देव) उसके व्यापारसे अपने प्रिय स्त्री, पुत्र, आदिके नष्ट होनेपर जो मनुष्य शोक करता है वह अंधकारमें नृत्यको आरंभ करता है ऐसा जान पड़ता है (अर्थात् अंधकारमें किये हुवे नृत्यको कोई देख नहीं सक्ता इसलिये जिसप्रकार अंधकारमें नृत्यका आरम्भ व्यर्थ होता है उसहीप्रकार स्त्री पुत्र आदिकेलिये मनुष्यका शोक करना भी व्यर्थ है) अतः आचार्य उपदेश देते हैं कि हे भव्यजीवो अपने ज्ञानसे संसारमें सबचीजोंको विनाशीक समझकर समस्त दुःखोंकी संतानको जड़से उड़ाने वाले धर्म का ही सदा तुम सेवन करो ॥९॥
और भी आचार्य उपदेश देते हैं । पूर्वोपार्जितकर्मणा विलिखितं यस्यावसानं यदा तज्जायत तदेव तस्य भविनो ज्ञात्वा तदेतद्धवम्। शोकं मुञ्च मृते प्रियेऽपि सुखदं धर्म कुरुष्वादरात् सर्प दूरमुपागते किमिति भोस्तवृष्टिराहन्यते॥१०॥
अर्थः-पूर्वभवमें संचितकर्मके द्वारा जिसप्राणीका अन्त जिसकालमें लिख दियागया है उसप्राणीका अंत उसीकालमें होता है ऐसा भलीभांति निश्चयकरके हे भव्यजीवो तुम अपने प्रियभी स्त्री पुत्र आदिके मरने पर शोक छोड़दो तथा बड़े आदरसे धर्मका आराधन करो क्योंकि सर्पके दूर चलेजानेपर उसकी रेनाका पाटना व्यर्थ है।
भावार्थ:-जिसप्रकार सर्पके चलेजानेपर उसकी रेखाका पीटना व्यर्थ है उसीप्रकार स्त्री पुत्र
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