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पचनन्दिपञ्चविंशतिका ।
पृथ्वीवृत्त दानप्रकाशनमशोभनकर्मकार्यकार्पण्यपूर्णहृदयाय न रोचतेऽदः ॥
दोषोज्झितं सकललोकसुखप्रदायि तेजोरवेरिव सदा हतकौशिकाय ॥५२॥ अर्थः-आचार्य कहते हैं कि खोटा जो मिथ्यात्वरूपी कर्म उसका कार्य जो कृपणता उससे जिसका हृदय भराहुआ है ऐसे कृपणपुरुषको समस्तदोषकर रहित तथा सर्वलोकको सुखका देनेवाला दानका प्रकाश रूपकार्य अच्छा नहीं लगता जिसप्रकार सूर्यका प्रकाश घूक (उल्लू) को अच्छा नहीं लगता है ॥५२॥
दानोपदेशनमिदं कुरुते प्रमादमासन्नभव्यपुरुषस्य न चेतरस्य ।
जातिः समुल्लसति दारु न भृङ्गसङ्गादिन्दीवरं हसति चन्द्रकरैर्न चाश्म ॥५३॥ अर्थः-और भी आचार्य कहते हैं कि जिसप्रकार भ्रमरोंके संगसे चमेली ही विकसित होती है लकड़ी विकसित नहीं होती तथा चन्द्रमाकी किरणोंसे कमल ही प्रफुलित होता है पाषाण प्रफुल्लित नहीं होता उसहीप्रकार जिसको थोड़े ही कालमें मोक्ष होनेवाली है ऐसे भव्यमनुष्यको ही यह दानका उपदेश हर्षका करनेवाला होता है अभव्यको यह दानका उपदेश कुछ भी हर्षका करनेवाला नहीं होता ॥५३॥
रत्नत्रयाभरणवीरमुनीन्द्रपादपद्मवयस्मरणसंजनितप्रभावः ॥
श्रीपद्मनन्दिमुनिराश्रितयुग्मदानपञ्चाशतं ललितवर्णचयं चकार ॥५॥ अर्थः-आचार्यवर दानोपदेशरूपप्रकरणको समाप्तकरतेहुए कहते हैं कि रत्नत्रयरूपीभूषणसे भूषित FI ऐसे श्रीवीरनन्दीनामकमुनिके दोनों चरणकमलोंके स्मरणसे उत्पन्न हुआ है उत्तमप्रभाव जिसको ऐसा श्री
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