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पचनन्दिपञ्चविंशतिका से जिसप्रकार कमलका पत्र मुरझाय जाता है उसहीप्रकार मुरझा जाता है तथा हथियार, रोग, जल, अभि, आदिसे भी यह पलभरमें नष्ट होजाता है इसलिये आचार्य कहते हैं कि हे भाई ऐसा शरीर कवतक रहेगा ऐसा कोई निश्चय नहीं है अथवा यह जल्दी नष्ट होगा इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं अतः इस शरीरमें किसी प्रकारकी ममता न रखकर अपना आत्मकल्याण करो ॥ २॥
शाळविक्रीड़ित । दुर्गन्धाशुचिधातुभित्तिकलितं सञ्छादितं चर्मणा विमूत्रादिभृतं क्षुधादिविलसदुःखाखुभिश्छिद्रितम् । क्लिष्टं कायकुटीरकं स्वयमपि प्राप्तं जरावन्हिना चेदेतत्तदपि स्थिरं शुचितरं मूढ़ो जनो मन्यते ॥३॥
अर्थः-जिसदेहरूपीझोंपड़ेकी भीतें दुर्गन्ध और अपवित्र ऐसी मल, मूत्र, आदि धातुओं की बनी हुई है तथा जो ऊपरसे चामसे ढका हुवा है और विष्टा मूत्र आदिसे भरा हुवा है तथा भूख प्यास आदिक जो दुःख वेही हुवे {से उन्होने जिसमें विले वनारक्ने हैं अर्थात् जो दुःखोंका भण्डार है और वृद्धावस्था रूपीअग्नि जिसके चारों ओर मोजूद है ऐसे शरीररूपीझोपड़े को भी मुढ़प्राणी अविनाशी तथा पवित्र मानते हैं यह बड़े आश्चर्य की बात है ॥३॥ अम्भोवुवुदसनिभा तनुरियं श्रीरिन्द्रजालोपमा दुर्वाताहतवारिवाहसदृशाः कान्तार्थपुत्रादयः। सौख्यं वैषयिकं सदैव तरलं मत्ताङ्गनापांगवत्तस्मादेतदुपप्लवाप्तिविषये शोकेन किं किं मुदा ॥ ४ ॥
अर्थः-शरीर तो जलके ववुलोंके समान है और लक्ष्मी इन्द्रजालके समान है तथा स्त्री, धन, पुत्र, मित्र, मादिक खोटेपवमसे नष्टहुवे मेघोंके समान पळभरमें विनाशीक है और युवतीस्त्रीके कटाक्षके समान चंचल यह
16म१३७॥
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