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॥२१२॥ ७
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पद्मनन्दिपश्चविंशतिका ।
धर्मरूपी रथके चक्रस्वरूप " अर्थात् परम धर्मरूपी रथके चलाने वाले " तथा सार क्रमकर सहित प्रतती तथा दान तीर्थकी उत्पत्ति हुई है ॥
भावार्थः – चतुर्थ कालकी आदिमें सबसे पहिले व्रततीर्थकी प्रवृत्ति श्रीऋषभ देवने की थी इसलिये व्रतथि के प्रकट करनेमें सबसे मुख्य श्री ऋषभ भगवान हैं तथा सबसे पहिले चतुर्त्यकालमें दानकी प्रवृत्ति करने वाले श्री श्रेयान् नामक राजा है क्योंकि सबसे पहिले उन्होंने ही श्री ऋषभ देव भगवान को इक्षु आहार ( दान ) दिया था इसलिये दानके अधिकार में इनदोनों महात्माओंके नामका स्मरण कियागया है |
`श्रेयोऽभिधस्य नृपतेः शरदभ्रशुभ्रभ्राम्यद्यशोभृतजगत्त्रितयस्य तस्य ॥
किंवर्णयामि ननु सद्मनि यस्य भुक्तं त्रैलोक्यवंदितपदेन जिनेश्वरेण ॥ २ ॥
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अर्थः- शरदकालके मेघके समान जो उज्वल भ्रमण करताहुआ यश उससे जिसने तीनों जगतको पूर्ण कर दिया है अर्थात् जिसका उज्वलयश तीनों लोकमें फैला हुआ है ऐसे श्रीश्रेयांस नामक राजाकी ( ग्रन्थकार कहते हैं कि ) हम क्या प्रशंसा करें जिस श्रेयान् राजाके घरमें तीन लोकके पूजनीक श्री ऋषभदेव भगवान ने आहार लिया था ॥ २ ॥
आचार्य और भी श्रेयांस राजाकी प्रशंसा करते हैं ।
श्रेयान् नृपो जयति यस्य गृहे तदा खादेकाद्यवन्धमुनिपुंगवपारणायाम् ॥ सा रत्नवृष्टिरभवज्जगदेकचित्रहेतुर्यया वसुमतित्वमिता धरित्री ॥ ३ ॥
अर्थः- वह श्रेयांस नामक राजा सदा जयवंत रहो जिस श्रेयांस राजाके घरमें तीन लोकके बंदनीक श्री
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