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॥११॥
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पअनन्दिपञ्चविंशतिका । अधिकारको समाप्त करते हुवे आचार्य और भी उपदेश देते हैं। दत्तानन्दमपारसंसृतिपथश्रान्तश्रमच्छेदकृत् प्रायो दुर्लभमत्रकर्णपुटकैर्भव्यात्मभिः पीयताम् । निर्यातं मुनिपद्मनन्दिवदनपालेयरश्मेः परं स्तोकं यद्यपि सारताधिकमिदं धर्मोपदेशामृतम् ।।१९८॥
अर्थः-जो धर्मोपदेश रूपी अमृत पीनेपर उत्तम आनंदका देनेवाला है और जो संसार रूपी जो अपार मार्ग उसमें थके हुवे जो प्राणी उनकी थकावट का दूर करनेवाला है तथा जो पुण्यहीन पुरुषों को भत्यन्त दुर्लभ है और जो पदानन्दि मुनि के मुख चन्द्रमा से निकला हुवा है " अर्थात जिस प्रकार चन्द्रमासे अमृत निकलता है उसही प्रकार पद्मनन्दि मुनिके मुख चन्द्रसे भी धर्मोपदेश रूपी अमृत निकला है" यद्यपि वह धर्मोपदेशामृत शब्दोंसे थोड़ा वर्णन कियागया है तो भी सारसे अधिक है ऐसा वह धर्मोपदेशामृत भव्यों को अवश्य पीना चाहिये ॥ १९८ ॥ इसप्रकार पद्मनन्दि आचार्यकृत पद्मनन्दि नामकग्रन्थमें धर्मोपदेशामृत नामा प्रथम अधिकार समाप्त हुवा
- अब आचार्य दानके अधिकारको प्रारंभ करते हुवे मंगलाचरण करते हैं।
वसंततिलका । जीयाजिनो जगति नाभिनरेन्द्रसूनुः श्रेयो नृपश्च कुरुगोत्रगृहप्रदीपः ।
याभ्यां बभूवतुरिह व्रतदानतीर्थे सारक्रमे परमधर्मरथस्य चक्रे ॥१॥ अर्थः-श्रीनाभि राजाके पुत्र श्री वृषभ भगवान् सदा इसलोकमें जयवंत रहो तथा कुरुगोत्र रूपी घरके प्रकाश करनेवाले श्री श्रेयान् राजा भी इसलोकमें सदा जयवंत रहो जिन दोनों महात्माओं की कृपासे उत्कृष्ट
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