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॥१२॥
पअनन्दिपञ्चविंशतिका । सूनोम॑तेरपि दिनं न सतस्तथा स्याद्वाधाकरं बत यथा मुनिदानशून्यम् ।
दारदष्टविधिना न कृते ह्यकार्ये पुसां कृते तु मनुते मतिमाननिष्टम् ॥ २९॥ अर्थः--आचार्य कहते हैं कि सजनपुरुषको पुत्रके मरनेका दिन भी उतना दुःखका देनेवाला नहीं | होता जितना कि मुनिके दानरहित दिन दुःखका देनेवाला होता है क्योंकि विहान्पुरुष दुर्देवसे किये हुवे कार्यको उतना अनिष्ट नहीं मानता जितना अपने द्वारा किये हुवे कार्यको अनिष्ट मानता है इसलिये विहानोंको अपने करनेयोग्य दानरूपी कार्य अवश्य करना चाहिये ।। २९ ।।
और भी दानकी दृढ़ता के लिये आचार्य कहते हैं। ये धर्मकारणसुमुल्लसिता विकल्पास्त्यागेन ते धनयुतस्य भवन्ति सत्याः ।
स्पष्टाः शशाङ्ककिरणैरमृतं क्षरन्तश्चन्द्रोपलाः किल लभन्त इह प्रतिष्ठाम् ॥ ३०॥ अर्थः-जिसप्रकार किसीमकानमें चन्द्रकान्तमणि लगी हुई है जबतक उनके साथ चन्द्रमाकी किरणोंका स्पर्श नहीं होता तबतक उनसे पानी नहीं झरसक्ता इसलिये उनकी कोई प्रतिष्ठा नहीं करता किंतु जिससमय चन्द्रमाके स्पर्श होनेसे उनसे पानी निकलता है उससमय उनकी बड़ीभारी प्रतिष्ठा होती है उसीप्रकार धनी पुरुषके चित्तमें जो जिन मंदिर बनवाना तीर्थयात्रा करना आदि धर्मके कारण उत्पन्न होते। हैं वे बिना पात्रदानके सत्यभूत नहीं समझे जाते किन्तु पात्रदानसे ही वे सच समझे जाते हैं इसलिये गृहस्थियोंको पात्रदान अवश्य देना चाहिये क्योंकि यह सबोंमें मुख्य हैं ॥ ३० ॥
मन्दायते य इह दानविधौ धनेऽपि सत्यात्मनो वदति धार्मिकताञ्च यत्तत् । माया हदि स्फुरति सा मनुजस्य तस्य या जायते तडिदमुत्र सुखाचलेषु ॥ ३१ ॥
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