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॥१३०॥
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पद्म नन्दिपञ्चविंशतिका ।
अर्थः- संसारमें कर्मानुसार कुत्ता भी अपने पेटको भरता है तथा अपने कर्मानुकूल राजा भी अपने पेटको भरता है इसलिये पेट भरनेमें तो कुत्ता तथा राजा समानही है परन्तु उत्तम नरभव पानेका तथा श्रीमान् होनेका तथा उत्तम विवेकी होनेका केवल एक यही फल है कि निरन्तर उत्तम आदि पात्रोंमें दान देना इसलिये जो मनुष्य उत्तम मनुष्यपनेका तथा श्रीमान होनेका और विवेकी होनेका अभिमान रखता है उसको अवश्य पात्रदान देना चाहिये ॥ ४१ ॥
आयासकोटिभिरुपार्जितमङ्गजेभ्यो यज्जीवितादपि निजाद्दयितं जनानाम् ।
वित्तस्य तस्य नियतं प्रविहाय दानमन्या विपत्तय इति प्रवदन्ति सन्तः ॥ ४२ ॥
अर्थः-- परदेश जाना सेवा करना इत्यादि नाना प्रकारसे जो धन पैदा किया गया है तथा जो मनुथ्योंको अपने पुत्रोंसे तथा जीवनसे भी प्यारा है उसधनकी सफलताकी एकगति दानही है किन्तु दानको छोड़कर और कोई दूसरी गति नहीं है और सब विपत्तिही विपत्ति है एसा सज्जनपुरुष कहते हैं इसलिये समस्तप्रकारके सुखका देनेवाला मनुष्यको दान अवश्य करना चाहिये ॥ ४२ ॥
नार्थः पदात्पदमपि ब्रजति त्वदीयो व्यावर्तते पितृवनान्ननु वन्धुवर्गः ।
दीर्घे पथः प्रवसतो भवतः सखैकं पुण्यं भविष्यति ततः क्रियतां तदेव ॥ ४३ ॥ अर्थः---मरते समय यह तेरा धन एक पैडसे दूसरे पैडतक भी नहीं जाता तथा वन्धुओंका समूह श्मसानभूमिसे ही लोट आता है परन्तु इसदीर्घसंसार में भ्रमण करतेहुवे तुझको तेरा पुण्य ही एक मित्र होगा अर्थात् वही तेरे साथ जायगा इसलिये तुझे पुण्यकाही उपार्जन करना चाहिये ॥ ४३ ॥
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