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पअनन्दिपश्चविंशतिका । रहता है घटता नहीं है उसीप्रकार संयमीपात्रोंके दानमें व्ययकीहुई लक्ष्मी सदा बढ़तीही जाती है घटती नहीं किन्तु पुण्यके क्षय होनेपर ही वह घटती है इसलिये मनुष्यको सदा संयमी पात्रोंमें दानदेना चाहिये ॥३८॥
जो मनन्य लोभसे दान नहीं देते उनके दोष आचार्य दिखाते हैं। सर्वान्गुणानिह परत्र च हन्ति लोभः सर्वस्य पूज्यजनपूजनहानिहेतुः । _ अन्यत्र तत्र विहितोऽपि हि दोषमात्रमेकत्र जन्मनि परं प्रथयान्ति लोकाः॥ ३९॥ अथ:-जो लोम पूज्यजन जो अहेन्त आदिक उनकी पूजा आदिमें हानिका पहुंचाने वाला है वह लोभ इसभवमें तथा परभवमें समस्तमनुष्योंके सम्यग्दर्शन आदि गुणोंको घातता है किन्तु जो लोभ लौकिक विवाह आदि कार्यों में किया जाता है उसलोभको तो इसजन्ममें मनुष्य केवल दोषही कहते हैं इसलिये मनुष्यको दान पूजन आदिमें कदापि लोभ नहीं करना चाहिये ॥ ३९ ॥
जातोऽप्यजात इव स श्रियमाश्रितोपि रङ्कः कलंकरहितोऽप्यगृहीतनामा ।
कम्बोरिवाश्रितमतेरपि यस्य पुंसः शब्दः समुच्चलति नो जगति प्रकामम् ॥ ४०॥ अर्थः--शंखकी तरह जिसमनुष्यका मृत्युके पीछे दानसे उत्पन्न हुवे यशका शब्द भली भांति संसारमें नहीं फैलता वह मनुष्य पैदाहुवा भी नहींपैदाहुवासा है तथा लक्ष्मीवान भी दरिद्री ही है तथा कलंक रहित है तो भी उसका कोई भी नाम नहीं लेता इसलिये मनुष्यको अवश्य दान देना चाहिये ॥ ४०॥
और भी आचार्य दानकाही उपदेश देते हैं। श्वापि क्षितेरपि विभुर्जठरं स्वकीयं कर्मोपनीतविधिना विदधाति पूर्णम् । किंतु प्रशस्यनृभवार्थविवेकितानामेतत्फलं यदिह सन्ततपात्रदानम् ॥ ४१ ॥
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