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दाल
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पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । अर्थः-मुनि आदि उत्तमपात्रदानमें मिथ्यादृष्टि पशुकी केवल की हुई रुचि (अनुमोदना ) ही जब उसको उत्तमभोगभूमि आदिके सुखों को देनेवाली होती है तब साक्षात् दानको देनेवाले सम्यग्दृष्टिके तो वह दान क्या २ इष्ट तथा उत्तम चीजों को न देगा । अर्थात् अवश्य स्वर्ग मोक्ष आदिके सुखको देगा।
भावार्थ:--दानके प्रभावसे ऐसी कोई वस्तु नहीं जो न मिल सके क्योंकि सबसे दुर्लभ मोक्ष की भी प्राप्ति जब दान से होजाती है तब इससे भी दुःसाध्य क्या वस्तु रही इसलिये ऐसे इष्टपदार्थोंका देने वाला दान भव्य जीवोंको शक्त्यनुसार अवश्य करना चाहिये ॥ ३३ ॥
दानाय यस्य न समुत्सहते मनीषा तद्योग्यसम्पदि गृहाभिमुखे च पात्रे ।
प्राप्त खनावपि महाय॑तरं विहाय रत्नं करोति विमतिस्तलभूमिभेदम् ॥ ३४ ॥ अथः-योग्य संपदाके होनेपर भी तथा मुनिके घर आनेपर भी जिस मनुष्य की बुद्धि दानदेनेमें उत्साह नहीं करती अर्थात् जो दान देना नहीं चाहता वह मूर्ख पुरुष खानिमें मिलेहुवे अमूल्यरत्नको छोड़ कर व्यर्थ पातालकी भूमिको खोदता है । भावार्थः-कोई मनुष्य रत्नकेलिये जमीन खोदे तथा उस मिलेहुवे रत्नको छोड़कर और भी गहरी यदि जमीन खोदता जावे तो जिसप्रकार उसका नीचे जमीन खोदना व्यर्थ जाता है उसीप्रकार जो मनुष्य योग्य संपदाको पाकर दान नहीं देता उसमनुष्य की भी मिली हुई संपदा किसी कामकी नहीं इसलिये भव्य जीवोंको द्रव्यानुसार दानदेनेमें कदापि प्रमाद नहीं करना चाहिये ॥ ३४ ॥
नष्टा मणीरिव चिराजलधौ भवेस्मिन्नासाद्य चारुनरतार्थजिनेश्वराज्ञाः । दानं न यस्य स जड़ः प्रविशेत्समुद्रं सच्छिद्रनावमधिरुह्य गृहीतरत्नः ॥ ३५ ॥
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