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भ११५cा
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पचनन्दिपश्चविंशतिका । लिये भव्यजीवोंको अपना कमाया हुवा धन दानमें ही खर्च करना चाहिये ॥ ७ ॥
वसंततिलका। भुक्त्यादिभिः प्रतिदिनं गृहिणो न सम्यङ्नष्टा रमापि पुनरेति कदाचिदत्र ।
सत्पात्रदानाविधिना तु गतायुदेति क्षेत्रस्य वीजमिव कोटिगुण वटस्य ॥८॥ अर्थः-गृहस्थके जिसलक्ष्मीका भोगादिसे नाश होता है वह लक्ष्मी कदापि लौटकर नहीं आती परंतु जो लक्ष्मी मुनि आदिक उत्तमपात्रोंके दानदेने में खर्च होती है वह लक्ष्मी भूमि में स्थित बट वृक्षके वीजके समान कोटि गुणी होती, अर्थात् जो मनुष्य लक्ष्मी पाकर निरभिमान होकर दान देते हैं वे इन्द्रादि संपदाओंका भोग करते हैं इसलिये यदि मनुष्यको लक्ष्मीकी वृद्धिकी आकांक्षा है तो उसको अवश्य मुनि आदि पात्रोंको दान देना चाहिये ॥ ८ ॥
अब भाचार्य गृहस्थकी महिमा का वर्णन करते हैं। यो दत्तवानिह मुमुक्षुजनाय भुक्तिं भक्त्याश्रितः शिवपथेन धृतः स एव ।
आत्मापि तेन विदधत्सुरसद्म नूनमुच्चैः पदं ब्रजति तत्सहितोऽपि शिल्पी ॥९॥ अर्थः-जिस प्रकार कारीगर जैसा २ ऊंचा मकान बनाता जाता है उतना २ आप भी ऊंचा होता चलाजाता है उसीप्रकार जो मनुष्य मोक्षकी इच्छाकरनेवाले मनुष्यको भक्तिपूर्वक आहार दान देता है वह उस मुनिको ही मुक्तिको नहीं पहुंचाता किंतु स्वयं भी जाता है इसलिये ऐसा स्वपरहितकारी दान मनुष्यों को अवश्य देना चाहिये ॥१॥
और भी आचार्य दानकी महिमाका वर्णन करते हैं।
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