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॥११४॥
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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । भावार्थः--गृहस्थावस्थामें धन कुटम्बादिकसे अधिक मोह रहता है इसलिये गृहस्थपना केवल संसारमें डुबाने वाला है परन्तु उसगृहस्थपनेमें दान दियाजावे तो वह दियाहुवा दान मनुष्योंको संसाररूपी समुद्र में नहीं डूबने देता है इसलिये भव्यजीवोंको सर्वगुणोंमें उत्कृष्ट दान देकर गृहस्थाश्रमको अवश्य सफल करना चाहिये ॥ ५॥
और भी आचार्य दानकी महिमाको दिखाते हैं । नानाजनाश्रितपरिग्रहसम्भृतायाः सत्पात्रदानविधिरेव गृहस्थतायाः ।
हेतुः परः शुभगतेर्विषमे भवेऽस्मिन्नावः समुद्र इव कर्मठकर्णधारः ॥ ६ ॥ अर्थः-जिसका खेवटिया चतुर है ऐसी अथाह समुद्र में पड़ी हुई भी नाव जिसप्रकार मनुष्यको तत्कालमें पार कर देती है उसही प्रकार इसभयंकरसंसारमें स्त्री पुत्र आदि नानाजनोंके आधीन जो परिग्रह उसकरके सहित इसगृहस्थपन में रहेहुवे मनुष्यके लिये श्रेष्ठपात्र में दीहुई दानविधि ही शुभगतिको देनेवाली होती है इसलिये भव्यजीवों को गृहस्थाश्रममें रहकर अवश्य दान देना चाहिये ॥ ६॥
पायाहुवा धन दान करनेसेही सफल होता है ऐसा आचार्य उपदेश देते हैं । आयासकोटिभिरुपार्जितमङ्गजेभ्यो यज्जीवितादपि निजाइयितं जनानाम् । वित्तस्य तस्य सुगतिः खलु दानमेकमन्या विपत्तय इति प्रवदन्ति सन्तः॥७॥ अर्थः-नाना प्रकारके दुःखोंसे जो धन पैदा कियागया है तथा जो पुत्रोंसे तथा अपने जीवनसे भी मनुष्यों को प्यारा है उस धनकी यदि अच्छी गति है तो केवल दानही है अर्थात् वह धन दानसे ही सफल होता है किन्तु दानके अतिरिक्त दिया हुवा वह धन विपत्तिकाही कारण है ऐसा सज्जन पुरुष कहते हैं इस
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