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पमनन्दिपश्चविंशतिका । और पित्त प्रकृतिवाला है तथा कोमल शरीरका धारी है और मारवाड़की भूमिमें गमन करनेवाला है अतएव जो अत्यन्त दुःखित है यदि वह दैवयोगसे हिमालय पर्वत की गुफामें वनेहुवे फुब्बारों सहित मनोहर धारागृह (फचारों सहित घर ) को पालेवे तो वह परमसुखी होता है उसही प्रकार जो जीव अनादि कालसे इस संसारमें जन्ममरण आदि दुःखों को सहता है तथा निरंतर नरकादि योनियों में भ्रमता है यदि वह भी धारागृह के समान इस धर्मको संसारमें पा लेवे तो सुखी होजाता है अर्थात् शान्तिका अनुभव करने लगजाता है इस लिये जो मनुष्य शान्तिको चाहनेवाले हैं उनको अवश्य धर्मका ही आराधन करना चाहिये ॥ १९२ ॥
आचार्य और भी धर्मकी महिमाका वर्णन करते हैं । संहारोग्रसमीरसंहतिहतप्रोद्भूतनीरोल्लसत्तुङ्गोर्मिभ्रमितोरुनक्रमकरमाहादिभिर्भाषणे । अम्भोधी विवुधोपवाड़वशिखिज्वालाकराले पतञ्जन्तोःखेपिविमानमाशु कुरुते धर्मः समालम्बनम् ॥
अर्थः-जो समुद्र प्रलयकालमें उठाहुवा जो भयंकर पवनकासमूह उससे उछलताहुबा जो जल उसकी जो ऊंची २ तर) उनमें भ्रमण करतेहुवे जो नाके मगर मच्छ आदि जलजीव उनसे भयंकर हो रहा है तथा जो तीक्ष्ण बड़वानलकी ज्वालासे भी भयंकर है ऐसे समुद्र में गिरतेहवे प्राणीको धर्म नहीं गिरनेदेता है तथा भाकाशमें भी विमान रचकर शीघ्र ही अवलंबन देता है।
भावार्थः-मनुष्यपर कैसी भी विपत्ति क्यों न आई होवे यदि वह धर्मात्मा है तो उसको धर्मके प्रभावसे सब विपत्ति पल भरमें दूर हो जाती है इसलिये जो मनुष्य दुःखोंसे छूटना चाहते हैं उनको सदा धर्मका आराधन करना चाहिये ॥१९३॥
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For Private And Personal