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पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । तो तुमको विशेष रीतिसे पुण्यका आराधन करना चाहिये ॥१८८॥
और भी पुण्यकी महिमाका वर्णन करते हैं ।
शार्दूल विक्रीड़ित । कोप्यंधोऽपि सुलोचनोऽपि जरसा प्रस्तोऽपि लावण्यवान निष्प्राणोऽपि हरिर्विरूपतनुरप्यापुष्यते मन्मथः। उद्योगोज्झितचेष्टितोऽपि नितरामालिङ्गयते च श्रिया पुण्यादन्यदपि प्रशस्तमखिलं जायेत यदुर्घटम्१८९
अर्थः--पुण्यके उदयसे अंधा भी सुलोचन कहलाता है तथा पुण्यके ही उदयसे रोगी भी रूपवान कहलाता है और निर्बल भी पुण्यके उदयसे सिंहकेसमान पराक्रमी कहाजाता है तथा पुण्यके ही उदयसे बदसूरत भी कामदेवके समान सुन्दर कहाजाता है तथा पुण्यके ही उदयसे आलसीको भी लक्ष्मी अपनेआप आकर घर लेती हैं विशेष कहांतक कहाजाय जो उत्तमसेउत्तम वस्तु संसारमें दुर्लभ कही जाती हैं वे भी पुण्यके ही उदयसे सब सुल्भ हो जाती है अर्थात् वे बिना परिश्रमके ही प्राप्त हो जाती हैं इसलिये भव्यजीवोंको सदा पुण्यका ही आराधन करना चाहिये ॥१८॥ अब आचार्य इसबातको दिखाते हैं कि जो मनुष्य पुण्यरहित है उनको पापके उदयसे
क्या क्या दुःख भोगने पड़ते हैं। वंधस्कन्धसमाश्रितं सृणिभिदामारोहकाणामरपृष्टे भारसमर्पणं कृतवता संचालन ताड़नम् । दुर्वांचं वदतामपि प्रतिदिनं सर्व सहन्ते गजा निर्धाम्नां वलिनोऽपि यत्तदखिलं दुष्टो विधिश्चेष्टते॥१९॥
अर्थः-यद्यपि महावतकी अपेक्षा हाथी बलवान होते हैं तोभी महावत उनको वांधते हैं तथा उनके ऊपर चढ़ते हैं और उनमें अंकुश भी मारते हैं तथा उनकी पाठपर बोझा भी लादते हैं और उनको अपनी
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१०६॥
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