________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
॥१०५॥
१४
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
पद्मनन्द्रियविंशतिका ।
बन जाते हैं उसीप्रकार यद्यपि निर्जन पहाड़ में किसी भी मनोज्ञवस्तुकी प्राप्ति नहीं होती तो भी धर्मात्मा पुरुघोंको धर्मकीकृपासे वहांपर भी मनको हरणकरनेवाली स्त्रियोंकी तथा उत्तम २ रत्नोंकी प्राप्ति हो जाती है और यद्यपि चित्रामके तथा काठके बनायेहुवे देवता कुछ भी नहीं दे सक्ते तो भी धर्मके महात्मासे वे भी वांछित पदार्थोंको देनेवाले हो जाते हैं विशेष कहांतक जहाजाय यदि संसारमें धर्म है तो जीवोंको कठिन से कठिन बस्तुकी प्राप्ति भी बातकीबातमें हो जाती है इसलिये भव्यजीवोंको सदा धर्मका ही आराधन करना चाहिये । और भी आचार्य पुण्य की महिमाको दिखाते हैं । वसंततिलका ।
दूरादभीष्टमभिगच्छति पुण्ययोगात्पुण्यादिना करतलस्थमपि प्रयाति ।
अन्यत् परं प्रभवतीह निमित्तमात्रं पात्रं बुधा भवत निर्मलपुण्यराशेः ॥१८८॥
अर्थः- पुण्यके उदयसे दूर रहीहुई भी वस्तु अपने आप आकर प्राप्त हो जाती है किंतु जब पुण्यका उदय नहीं रहता तब हाथमें रक्खी हुई भी वस्तु नष्ट हो जाती है यदि पुण्यपापसे भिन्न कोई दूसरा पदार्थ सुख दुःख का देनेवाला है तो एक निमित्तमात्र है अर्थात् पुण्यपाप ही सुखःदुखका देनेवाला है इसलिये ग्रंथकार कहते हैं कि भव्यजीवको चाहिये कि वे निर्मल पुण्यके पात्र बनें ।
भावार्थः —संसारमें यहबात बहुधा सुननेंनें आती है कि वह मनुष्य तथा वह देव मुझे सुखका देनेवाला है तथा मेरा भला करनेवाला है और वह मनुष्य मुझे दुःखका देनेवाला है तथा मेरा बुरा करनेवाला है आचार्य कहते हैं कि यह सब कहना व्यर्थ ही है क्योंकि सुख तथा दुःखका देनेवाला अथवा भलाबुरा करनेवाला एक पुण्य तथा पाप ही है इसलिये यदि तुम सुखकी इच्छा करते हो अथवा अपना भला चाहते हो
For Private And Personal
0000666666666666er 9010 die onde
॥१०५॥