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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । निरंतर धर्मकरै जिससे उनको बिना परिश्रमसे वे बस्तु मिलजावें ॥ १८५॥
और भी आचार्य उपदेश देते हैं। सौभागीयसि कामिनीयसि सुतश्रेणीयसि श्रीयसि प्रासादायसि चेत्सुखीयसि सदा रूपीयसि प्रीयसि । यदानन्तसुखामृताम्बुधिपरस्थानीयसीह ध्रुवं निर्धूताखिलदुःखदापदि सुहृद्धर्मे मतिर्धार्यताम् ॥१८६॥
अर्थः-जो तुम सौभाग्यकी इच्छा करते हो और कामिनीकी आभलाषा करते हो तथा बहुतसे पुत्रों के प्राप्तकरनेकी इच्छाकरते हो और जो यदि तुम्हारे उत्तम लक्ष्मीके प्राप्त करने की इच्छा है वा उत्तम मकान पानेकी इच्छा है अथवा यदि तुम सुखचाहते हो तथा उत्तमरूपके मिलने की इच्छाकरते हो और समस्तजगतके प्रिय बनना चाहते हो अथवा जहांपर सदा अविनाशीसुखकीराशि मौजूद है ऐसे उत्तम मोक्षरूपी स्थानको चाहत हो तो तुम नानाप्रकारके दुःखोंकोदेनेवाले आपत्तियोंके दूरकरनेवाले जिनभगवानकर बतायेहवे धर्ममें ही अपनी बुद्धिको स्थिर करो (धर्मका ही आराधन करो)
भावार्थ:-सर्व संपदा तथा सुखकादेनेवाला तथा समस्त आपदा तथा दुःखाको दूरकरनेवाला एक सच्चा | धर्म ही है इसलिय भव्यजीवोंको दृढ़तासे इसीको धारण करना चाहिये ॥१८६॥
और भी आचार्य धर्महीकी माहमा दिखाते हैं। संछन्नं कमलैर्मरावपि सरः सौधं वनप्वुन्नतं कामिन्यो गिरिमस्तकेऽपि सरसाः साराणि रत्नानि च । जायन्तेपिचलेपकाष्टघटिताः सिद्धिप्रदा देवताःधर्मश्चेदिह वाञ्छितं तनुभृतां किंकिंन सम्पद्यते ॥१८७॥
अर्थः-यद्यपि मरुदेश निर्जल कहाजाता है परन्तु धर्मकेप्रभावसे मारवाड़में भी मनोहर कमलोंकरसहित तालाब हो जाते हैं और बनमें मकानआदि कुछ भी नहीं होते परन्तु धर्मकेप्रतापसे वहांपर भी विशाल घर
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का॥१४॥
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