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पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका ।
इच्छानुसार चलाते हैं तथा और भी ताड़ना करते हैं और प्रतिदिन उनको गाली भी देते हैं और उन हाथियों को य सववातें सहनभी करनी पड़ती हैं इसही प्रकार उत्तम पुरुषों पर नीच पुरुष भी अपना प्रभाव डालते है इसलिये आचार्य कहते हैं ये समस्त चेष्टायें दुष्ट कर्मकी हैं अर्थात् पापके द्वारा ही ये सब बातें होती हैं इसलिये भव्योंको चाहिये कि वे सदा पुण्यका ही उपार्जन करे तथा पापका नाश करै ॥ १९० ॥ आचार्य और भी धर्मकी महिमाका वर्णन करते हैं ।
सर्पो हारलता भवत्यसिलता सत्पुष्पदामायते सम्पद्येत रसायनं विषमपि प्रीतिं विधत्ते रिपुः । देवा यान्ति वशं प्रसन्नमनसः किं वा बहु घूमहे धर्मो यस्य नभोऽपि तस्य सततं रत्नैः परैर्वर्पति ॥ १९९ ॥
अर्थः-- जो मनुष्य धर्मात्मा हैं उनके धर्मके प्रभाव से भयंकर सर्प भी मनोहर हार वनजाते हैं तथा पैनी तलवार भी उत्तम फुलोंकी माला बनजाती है और धर्म के प्रभावसे हो प्राण घातक विषभी उत्तम रसायन वनजाता है तथा धर्मके ही माहात्म्यसे वैरी भी प्रीति करने लगजाता है और प्रसन्न चित्तहोकर देव धर्मात्मा पुरुषके आधीन होजाते हैं ग्रन्थकार कहते हैं कि विशेष कहांतक कहा जाय जिस मनुष्य के हृदय में धर्म है अर्थात् जो मनुष्य धर्मात्मा है उनके धर्म के प्रभाव से आकाशसे भी उत्तम रत्नोंकी वर्षा होती है इसलिये भव्य जीवोंको धर्मसे कदापि विमुख नहीं होना चाहिये ॥ १९१ ॥
धर्मकी महिमा का और भी वर्णन किया जाता है । उग्रग्रीष्मरविप्रतापदहनज्वालाभितप्तश्चलन् यः पित्तप्रकृतिर्मरौ मृदुतरः पान्थो यथा पीड़ितः । तद्राग्लव्य हिमाद्रिकुञ्जरचितप्रोद्दामयन्त्रोलसद्वारावेश्मसमो हि संसृतिपथे धर्मो भवेद्देहिनाम् ॥१९२॥ अर्थः- जो वटोही ग्रीष्मकाल में भयंकर सूर्यकी संतापरूपी अग्निकी ज्वालाओंसे अत्यंत तप्तायमान है
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