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पअनन्दिपश्चविंशतिका । है परन्तु जिस समय वह कालवली सामने पड़जाता है तब ऊपर लिखी हुई वातोंमेंसे एकभी बात नहीं होती ऐसा भलीभांति विचार कर विहान् पुरुष उसकालके रोकनेवाले को ढूढ़ते हैं।
भावार्थ:-इस कालवलीको रोकनेवाला मात्र एक जिनेन्द्रका धर्मही है क्योंकि धर्मात्माओंका काल कुछ नहीं करसक्ता इसलिये भव्य जीवोंको चाहिये कि वे धर्मकी आराधना करें ॥१७५॥
औरभी आचार्य उपदेश देते हैं।
मालिनी। रतिजलरममाणो मृत्युकैवर्तहस्तप्रसृतघनजरोरुपोल्लसजालमध्ये । विकटमपि न पश्यत्यापदां चक्रमुग्रं भवसरसि वराको लोकमीनौघ एषः ॥ १७६ ॥
अर्थः-जिसप्रकार मल्लाकर विछाये हुवे जालमें रहकर भी मछलियोंका समूह जलमें कीड़ा रहता है किंतु मारे जायगे इस प्रकार आई हुई आपत्तिपर कुछ भी ध्यान नहीं देता उसही प्रकार यह लोकरूपी मीनोंका समूह मृत्युरूपी मल्लाकर विछाये हुवे प्रबल जरारूपी जालमें रहकर इंद्रियोंके विषयमें प्रीति रूपी जो जल उसमें निरन्तर क्रीड़ाही करता रहता है किन्तु आनेवाली नरकादि आपत्तियों पर कुछ भी विचार नहीं करता ॥१७६॥
धर्मसे ही मृत्यु जीती जाती है इस वातको दिखाते हैं।
शार्दूल विकीड़ित । क्षुद्भुक्तस्तृडपीह शीतलजलाद् भूतादिका मन्त्रतः सामादरहितो गदागदगणः शांतिं नृभिर्नीयते । नो मृत्युस्तु सुरैरपीति हि मृते मित्रेऽपि पुत्रेऽपि वा शोको न क्रियते वुधैःपरमो धर्मस्ततस्तजयः॥१७७॥
अर्थः-मनुष्य क्षुधाको भोजनसे प्यास को शीतल जलके पीनेसे तथा भतादिकों को मंत्रसे तथा बैरीको
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