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॥१२॥
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पअनन्दिपश्चविंशतिका । साम दाम दण्डादिकसे और रोगको औषधि आदिसे शान्त करलेते हैं परन्तु मृत्युको देवादिक भी शान्त नहीं करसक्ते इसलिये विहान् पुरुष मित्र तथा पुत्रके मरजाने पर भी शोक नहीं करते किन्तु वे उत्तम धर्म का ही आराधन करते हैं क्योंकि वे समझते हैं कि उत्तम धर्मसे ही मृत्युका जय होता है।
भावार्थः--इस संसारमें समस्त रोगादिकी शान्तिके उपाय मौजूद है परन्तु मृत्युकी शान्तिका सिवाय धर्मके दूसरा कोई उपाय नहीं इसलिये विद्वानोंको यदि मृत्यु से बचना है तो उनको अवश्य ही धर्मकी आराधना करनी चाहिये ॥ १७७ ॥
आचार्य धर्मकी ही महिमाका वर्णन करते हैं।
__मंदाक्रांता। त्यक्त्वा दूरं विधुरपयसो दुर्गतिक्लिष्टकृछात् लब्धानंदं सुचिरममरश्रीसरस्यां रमन्ते । इत्येतस्या नृपपदसरस्यक्षयं धर्मपक्षा यान्त्येतस्मादपि शिवपदं मानसं भव्यहसाः ॥ १७८॥
अर्थः-जिसप्रकार हंस नामकपक्षी खराब जलके भरे हुवे तालावको छोड़ कर निर्मल जलके भरेहुवे सरोवरमें अपने पंखोंके वलसे चलाजाता है तथा वहांपर चिरकाल तक आनंदसे क्रीड़ा करता है तथा अपने पंखोंके ही वलसे उस सरोवर को छोड़कर दूसरे सरोवर को चालाजाता है इसही प्रकार क्रमशः नाना उत्तम सरोवरोंके आनंद को भोगता २ वही हंस मानस सरोवर को प्राप्त होजाता है तथा वह वहां पर चिरकाल तक नाना प्रकारके आनन्दों का भोग करता है उसही प्रकार ये भव्य रूपी हंस भी धर्मरूपी पंखके बलसे दुःख रूपी जलसे भरे हुवे दुर्गति रूप तालावको छोड़कर देवलोक संबंधी जो लक्ष्मी रूपी सरोवरी उसमें आनंद के साथ चिरकालतक क्रीड़ा करते हैं तथा उसको भी छोड़कर धर्मके ही वलसे वे नाना प्रकारके
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