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पञ्चनन्दिपश्चविंशतिका ।
हर नन्दनवन और वे मनोहर देवांगना तथा वह अत्यन्त निर्मल इंद्रपना इत्यादि समस्त विभूति धर्मके ही महात्म्यसे मिलती है इसलिये ऐसे पवित्र धर्मका आराधन भव्यजीवोंको अवश्य करना चाहिये १८० ॥ और भी धर्मकी महिमाहीका वर्णन करते हैं ।
यत् षट्खण्डमही नवोरुनिधयो द्विःसप्त रत्नानि यत्तुङ्गा यद्विरदा रथाश्च चतुराशीतिश्च लक्षाणि यत् । यच्चाष्टादश कोटयश्च तुरगा योषित्सहस्राणि यत् षट्युक्ता नवतिर्यदेकविभुता तद्धाम धर्मप्रभोः ॥ १८१॥ अर्थः-- वह तो है खंडकी पृथ्वी और वे बड़ी २ नौनिधि तथा वे समस्तसिद्धि के करनेवाले चौदह रत्न और वे चौरासी लाख बड़े २ हाथी तथा विमान के समान चौरासीलाख बड़े २ रथ और वे अठारह करोड़ पत्रनके समान चंचल घोड़े तथा वे देवांगना के समान छानबे हजार स्त्रियां तथा वह इन समस्तविभूतियों का चक्रवर्तिपना इत्यादि समस्तविभूति धर्म के प्रतापसे ही मिलती है । इसलिये भव्यजीवोंको ऐसे धर्मकी आराधना अवश्य करनी चाहिये ॥१८१
धर्मकी महिमाहीको और कहते हैं ।
धर्मो रक्षति रक्षतो ननु हतो हन्ति ध्रुवं देहिनां हन्तव्यो न ततः स एव शरणं संसारिणां सर्वथा । धर्मः प्रापयतीह तत्पदमपिध्यायन्ति यद्योगिनो धर्मात्सत्सुहृदस्ति नैव च सुखी नो पण्डितो धार्मिकात् १८२ अर्थः-- धर्मको रक्षा होनेपर तो धर्म प्राणियोंकी रक्षा करता है परन्तु नाश होनेपर वह प्राणियों का भी नाश कर देता है इसलिये भव्यजीवोंको कदापि धर्मका नाश नहीं करना चाहिये क्योंकि समस्त प्राणियोंका सहायक धर्म ही है तथा जिस ( मोक्ष ) पदको योगीश्वर सदा ध्यान करते रहते हैं उस पदको भी देनेवाला है इसलिये धर्मसे बढकर कोई भी सच्चा मित्र नहीं है और धर्मात्मा पुरुषसे अधिक कोई भी सुखी नहीं है ।
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