________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
॥४३॥
000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
www.kobatirth.org
पअनन्दिपश्चविंशतिका ।। याति क्षयं क्षणत एव घनोग्रकोपदावानलात् त्यजत तं यतयोऽत्र दूरम् ॥८३॥ अर्थः-आचार्य कहते हैं कि गुणरूपी जो शाखा पत्र फूल उनकरके सहित ऐसा यह यतिरूपी वृक्ष है यदि इसमें भयंकर क्रोधरूपी दाबानल प्रवेश करजावे तो यह किसीप्रकार फल न देकर ही बातकी बातमें नष्ट हो जाता है इसलिये यतीश्वरों को चाहिये कि क्रोध आदिको वे दूरसे ही छोड़ देवे ॥
भावार्थ-जिसवृक्षपर नानाप्रकारकी मनोहर शाखा मौजूद है तथा पत्र फूलोंसे भी जो शोभित हो रहा है और अल्पकालमें ही जिसपर फल आनेवाले हैं ऐसे वृक्षमें यदि अग्नि प्रवेश कर जावे तो वह शीघ्र ही जल जाता है तथा उसपर किसी प्रकारका फल नहीं आता उसी प्रकार जो मुनि सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र आदि गुणोंकर सहित है किन्तु अभीतक उसके क्रोध मानादिक शान्त नहीं हुवे हैं ऐसे मुनिको कदापि स्वर्ग मोक्षादिकी प्राप्ति नहीं हो सक्ती इसलिये मुनियोंको चाहिये कि वे क्रोधादिको अपने पास भी न फटकने देवे ।।
॥ उत्तमक्षमाधारी इसप्रकार विचार करते हैं ।
शार्दूल विक्रीड़ित । तिष्ठामो वयमुज्वलेन मनसा रागादिदोषोज्झिता लोकः किञ्चिदपि स्वकीयहृदये स्वच्छाचरो मन्यताम्। साध्या शुद्धिरिहात्मनःशमवतामत्रापरेण दिषा मित्रेणापि किमु स्वचेष्टितफलं स्वार्थः स्वयं लप्स्यते॥८४॥
अर्थः--रागदेषादिसे रहित होकर हमतो अपने उज्वल चित्तसे रहेंगे खेच्छाचारी यहलोक अपने हदयमें चाहै हमको भला बुरा कैसा भी मानो क्योंकि शभी पुरुषों को अपने आत्माकी शुद्धि करनी चाहिये और इस लोकमें बैरी अथवा मित्रोंसे हमको क्या है ? अर्थात् वे हमारा कुछ भी नहीं करसक्ते क्योंकि जो हमारे साथ द्वेषरूप तथा प्रीतिरूप परिणाम करेगा उसका फल उसको अपने आप मिल जावेगा ॥८॥
150066666666०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००
॥४
॥
For Private And Personal