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पअनन्दिपश्चविंशतिका । शुद्धादेश तथा अशुद्धके भेदसे नयके तीन भेद हुवे उनतीनोंमें शुहनय जो है सो शुद्धादेश तथा अशुद्धनय के उपायसे होता है इसलिये विद्वानोंको शुद्धनयका ही आश्रय करना चाहिये तथा यह नियम है कि आपसमें एक दूसरेकी अपेक्षा करनेवाला ही नयका समूह कार्यकारी हो सक्ता है परन्तु एकान्तसे भिन्न नहीं।
भावार्थ:-यद्यपि शुद्धनय ही ग्रहण करनेयोग्य है तथापि व्यवहार विना शुद्धनय कदापि नहीं हो सक्ता इसलिये व्यवहारसे ही शुद्धनयका सिद्ध करना योग्य है क्योंकि व्यवहारकी नहीं अपेक्षा करनेवाला शुद्धनय कोई कार्यकारी नहीं तथा निश्चयनयकी नहीं अपेक्षा करनेवाला व्यवहार नय भी कोई प्रयोजनका नहीं है। किंतु एकदूसरेकी अपेक्षा करनेवाला ही तप कार्यकारी है ॥ १५७ ।।
फिर भी ग्रंथकार शुद्धात्माका वर्णन करते हैं। ज्ञानं दर्शनमप्यशेषविषयं जीवस्य नार्थांन्तरं शुद्धादेशविवक्षया स हि ततश्चिद्रूप इत्युच्यते । पर्यायैश्च गुणैश्च साधुविदितेतस्मिन् गिरा सद्गुरोर्ज्ञातं किं न विलोकितं न किमथ प्राप्तं न किं योगिभिः
अर्थः--यद्यपि व्यवहार नयस ज्ञानदर्शन आत्मासे भिन्न है तथापि शुद्धनयकी विवक्षा करने पर समस्त पदार्थों को हाथकी रेखाके समान जाननेवाला तथा देखनेवाला ज्ञान तथा दर्शन आत्मासे कोई भिन्न बस्तु नहीं है किंतु दर्शनज्ञान चेतना वरूप ही यह आत्मा है इसलिये जिन योगियोंने श्रेष्ट गुरुओंके उपदेशसे
यदि गुण तथा पर्यायों सहित आत्माको जान लिया तो उनने समस्त को जानलिया तथा सबको देख लिया | तथा जो कुछ प्राप्त करने योग्य वस्तु थी उस सबको भी पालिया ॥ १५८ ॥
भावार्थ:-जिस पुरुषने दर्शन ज्ञानस्वरूप आत्माको गुणपर्यायों सहित जानलिया तो समझना चाहिये उसने सबको जानलिया तथा देखलिया ।
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