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पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका ।
जो मनुष्य अवसर पाकर भी धर्म नहीं करते हैं उनकी ग्रन्थकार निंदा करते हैं । तिष्ठत्यायुरतीव दीर्घमखिलान्यङ्गानि दूरं दृदान्येषा श्रीरपि मे वशं गतवती किं व्याकुलत्वं मुधा । आयत्यां निरवग्रहो गतवया धर्म करिष्ये भरादित्येवं वत चिंतयन्नपि जड़ो यात्यंतकग्रासताम् ॥ १७० ॥
अर्थः— अभी मेरी आयु बहुत है हाथ पैर नाक कान आदिकभी मजबूत हैं तथा लक्ष्मी मेरे विद्यमान हैं इसलिये व्यर्थ धर्मादि के लिये क्यों व्याकुल होना चाहिये किंतु इस समयतो आनंद से भोगोंको भोगना चाहिये भविष्यत्कालमें जिस समय वृद्ध होजाऊंगा उस समय निश्चय कर अच्छी तरह धर्मका आराधन करूंगा इसप्रकार विचार करताही करता मूर्ख मरजाता है इसलिये विद्वानों को चाहिये कि वे मृत्यु सदा शिर पर छाई हुई है इस भयसे निरंतर धर्मकी आराधना करै ॥ १७० ॥
आर्या ।
पलितैकदर्शनादपि सरति सतश्चित्तमाशु वैराग्यम् । प्रतिदिनमितरस्य पुनः सह जरया वर्द्धते तृष्णा ॥ १७० ॥
अर्थः – जो पुरुष ज्ञानी हैं वे तो सफेद केशको देखते ही वैराग्यको प्राप्त होते हैं किंतु जो मनुष्य ज्ञान रहित हैं उनको तो जैसा २ सफेद केशोंका दर्शन होताजाता है वैसी वैसही उनकी तृष्णा और भी चढ़ती चलीजाती है और उनको वैराग्य की बात भी बुरी लगती है ॥ १७१ ॥
तथा वे अज्ञानी पुरुष तृष्णाको इसप्रकार कहते हैं ।
मन्दाक्रान्ता ।
आजातेर्नस्त्वमसि दयिता नित्यमासन्नगासि प्रौदास्याशे किमथ वहुना स्त्रीत्वमालम्बितासि ।
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