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पत्र नन्दिपञ्चविंशतिका ।
न्यायादंधकवर्तकीयकजनाख्यानस्य संसारिणां प्राप्तं वा वहुकल्पकोटिभिरिदं कृच्छ्रान्नरत्वं यदि । मिथ्यादेवगुरूपदेशविषयव्यामोहनी चान्वयप्रायैः प्राणभृतां तदेव सहसा वैफल्यमागच्छति ॥१६७॥
अर्थः- प्रथमतो मनुष्य जन्म पाना संसार में अत्यंत कठिन काम है दैव योगसे अंधके हाथमें बटेरके समान करोड़ों कल्पों के बाद यदि इस अत्यंत दुःसाध्य मनुष्य जन्मकी प्राप्ति भी होजावे तो वह मनुष्य जन्म खोटे देव तथा खोटे गुरुओंके उपदेशसे निष्फल चलाजाता है तथा विषयोंमें आशक्ततासे तथा व्यसनादिक नीचकार्य करनेसे भी वह बातकी बात में व्यर्थ चलाजाता है ॥
भावार्थः — बटेर एक जातिका अत्यंत चंचल पक्षी होता है वह चतुरसे चतुर भी नेत्रधारियों के हाथमें बड़ी कठिनता से आता है फिर अंधेके हाथमें आना तो उसका अत्यन्त ही कठिन है यदि दैवयोग से वह अंधे के हाथमें आजावे तो जिसप्रकार उसका आना बहुत कठिन समझा जाता है उसही प्रकार यह मनुष्य जन्म है क्योंकि सबसे निकृष्ट निगोद राशि है उसमेंसे निकलकर बड़े पुण्यके उदयमे यह जीव एकेंद्री होता है फिर दोइंद्री तेइंद्री चौइंद्री पञ्चेंद्री होता है फिर बड़े पुण्यके उदयसे इस मनुष्य जन्मको धारण करता है किन्तु ऐसा भी कठिन वह मनुष्य जन्म खोटे देव तथा गुरुआदिके उपदेश आदि व्यर्थही चलाजाता है इसलिये भव्य जीत्रोंको चाहिये कि ऐसे दुर्लभ मनुष्य जन्मको पाकर वे खोटे देवकी सेवा तथा खोटे गुरुओंके उपदेश का श्रवण न करे तथा विषयों में भी मग्न न रहै ॥। १६७ ।।
कुगुरु कुदेवादिकी सेवा आदिके त्यागसे ही मनुष्य जन्म सफल होता है ऐसा आचार्य वर्णन करते हैं । वसंततिलका ।
लब्धे कथं कथमपीह मनुष्यजन्मन्यङ्गप्रसंगवशतो हि कुरु स्वकार्यम् ।
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