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॥९१॥
पअनन्दिपञ्चविंशतिका । आगे आचार्य वीस श्लोकोंमें धर्मकी महिमाका तथा धर्मके उपदेशका वर्णन करते हैं।
स्रग्धरा इत्यादिधर्म एष क्षितिपसुरसुखानय॑माणिक्यकोषः पायो दुःखानलानां परमपदलसत्सौधसापो नराजिः। एतन्माहात्म्यमीशःकथयतिजगतांकवलीसाध्वधीति सर्वस्मिन्वाङ्मयेऽथस्मरति परमहोमादृशस्तस्यनाम
अर्थः-ग्रन्थकार कहते हैं कि पूर्वमें जो दया आदिक पांच प्रकार का धर्म कहा है वह धर्म बड़े २ चक्रवी आदिक राजाओंके तथा इंद्र अहमिन्द्र आदिके सुखका देनेवाला है तथा समस्त दुःखोंको मूलसे नाश करने वाला है और वह धर्म निर्वाण रूपी महलके चढ़ने के लिये पैड़ीके समान है अर्थात् जो मनुष्य धर्म को धारण करता है उनको मोक्षकी प्राप्ति होती है । ऐसे उस धर्मके माहात्म्यको साक्षात्केवली अथवा समस्त द्वादशांगके पाठी गणधर ही वर्णन करसक्ते हैं परन्तु मेरे समान मनुष्य तो केवल उसके नामको ही स्मरण करसक्ते हैं। भावार्थः--धर्मकी महिमाका वर्णन सिवाय केवली अथवा गणधर देवके दूसरा कोई नहीं करसक्ता ॥१६४॥
धर्मही धारण करने योग्य है ऐसा उपदेश कहते हैं ।
शार्दूलविक्रीड़ित । शश्वजन्मजरान्तकालविलसदुःखौघसारीभवत् संसारोग्रमहारुजोऽपहृतयेऽनन्तप्रमोदाय वै । एतद्धर्मरसायनं ननु बुधाः कर्तुं मतिश्चेत्तदा मिथ्यात्वाविरतिप्रमादनिकर क्रोधादि संत्यज्यताम्॥१६५॥
अर्थः-भो भव्यजीवो यदि तुम निरन्तर जन्म जरा मरण आदिक समस्त दुःखोंको देनेवाले संसार रूपी भयंकर रोगके दूरकरने के लिये धर्मरूपी रसायनका आश्रय लेना चाहते हो तथा अनन्त सुखकी
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