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पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । भावार्थः-सिवाय गुरुके उपदेशके ये समत चीजै संतापही की करनेवाली हैं अंश मात्र भी शांतिकी करनेवाली नहीं है इसलिये जो मनुष्य शांतिके अभिलाषी हैं उनको गुरुके वचनका ही आश्रय लेना चाहिये १६२
अव आचार्य शुद्धात्माकी परिणतिस्वरूप धर्ममें मग्नहुवे योगियों को नमस्कार करते हैं। जित्वा मोहमहाभटं भवपथे दत्तोग्रदुःखश्रमे विश्रान्ता विजनेषु योगिपथिका दीर्घ चरन्तः क्रमात् । प्राप्ता ज्ञानधनाश्चिरादभिमतं स्वात्मोपलं तिष्ठति नित्यानंदकलत्रसंगसुखिनो ये तत्र तेभ्यो नमः॥१६३॥
अर्थः-जो योगीश्वर रूप पथिक अत्यंत दुःखको देनेवाले संसाररूपी विशाल मार्गमें विचरते हुवे समस्त ज्ञानादिक धनको चुरानेवाले मोहरूपी योधाको जीतकर निर्जन स्थानमें विश्राम लेते हैं तथा जो ज्ञानरूपी धनके स्वामी हैं और जिसका कभी भी नहीं नाश होनेवाला है ऐसा जो आत्मिक सुखरूपी स्त्री उसके संगसे जो सदा सुखी है तथा अपने आत्माके स्वरूपकी जहाँपर प्राप्ति होती है ऐसे स्थानमें विराजमान हैं उन योगियोंको मैं नमस्कार करता हूं ॥
भावार्थ:-जिसप्रकार कोई धनयुक्त पथिक किसी बड़े भार्गमें मिलेहुवे चोरोंको जीतकर तथा अपने धनको बचाकर जब वांछित स्थान पर पहुंच जाता है तब वह अपनी स्त्री के साथ नाना प्रकारके भोगविलासोको करता हुवा सुखसे रहता है उसही प्रकार जिन योगीश्वरोंने संसार रूपी गहन मार्गमें रहनेवाले तथा ज्ञानरूपी धनको चुरानेवाले मोहरूपी ठगको जीतकर अपने ज्ञान धनकी रक्षा की है तथा जो मोक्षरूपी स्त्री के साथ नाना प्रकारके सुखोंका भोगकरते हैं और अपने आत्मस्वरूपमें लीन हैं एसे उन योगीश्वरोंको मैं मस्तक नवाकर नमस्कार करता हूं ॥ १६३ ॥
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