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पअनन्दिपश्चविंशतिका ।
शार्दूलविक्रीड़ित । जायन्ते विरसा रसा विघटते गोष्ठीकथाकौतुकं शार्यन्ते विषयास्तथा विरमति प्रीतिः शरीरेऽपि च । जोषं वागपि धारयत्यविरतानन्दात्मशुद्धात्मनश्चितायामपि यातुमिच्छति समं दोषैर्मनः पञ्चताम् ।
अर्थः-आचार्य कहते हैं कि परमानंदस्वरूप शुद्धात्माकी प्राप्तितो दूरही रहो किंतु केवल उसकी चिंता करने परही शृंगारादि रस विरस होजाते हैं स्त्री पुत्र आदिकी गोष्टी (सलाह) नष्ट होजाती है और उनकी कथा और कुतर्क दूर भगजाते हैं तथा इंद्रियोंके विषयभी सर्वथा नष्ट होजाते हैं और स्त्री पुत्र आदिकी प्रीति तो दूरही रहो शरीर में भी प्रीति नहीं रहती और वचन भी मौन को धारण करलेता है और समस्त राग द्वेषादि दोषोंके साथ मन भी विनाशको प्राप्त होजाता है इसलिये भव्य जीवोंको चाहिये कि वे शुद्धात्माकी चिताही में निमग्न बने रहें ॥ १५४ ॥
आचार्य आत्मध्यान का वर्णन करते हैं। आत्मैकःसोपयोगोमम किमपिततोनान्यदस्तीतिचिंताभ्यासास्तशिषवस्तोःस्थितपरममुदायद्गतिनोविकल्पे ग्रामे वा कानने वा जनजनितसुखे निःसुखे वा प्रदेशे साक्षादाराधना सा श्रुतविशदमतेर्वाह्यमन्यत्समस्तम
अर्थः-दर्शन ज्ञानमयी आत्माही एक मेरा है इससे भिन्न कोई भी बस्तु मेरी नहीं है इस प्रकारकी चिंता से जिसमनुष्यके मनकी परिणति वाद्यपदार्थों से सर्वथा छूटगई है तथा जिसकी शास्त्र के अभ्याससे बुद्धि निर्मल होगई है और जो परमानंदका धारी है उस मनुष्यके मनकी प्रवृत्तिका विकल्पोंसे हटजाना तथा गांवमें अथवा बनमें अथवा मनुष्योंको सुखके उपजानेवाले प्रदेशमें अथवा दुःख उपजावने वाले प्रदेशमें भी मन का न जाना किंतु अपने आत्माके अनुभव में ही लीन होना यही उत्कृष्ट आराधना है परंतु इससे भिन्न सच वाह्य है तथा, सर्व त्यागने योग्य है ॥ १५५ ॥
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