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॥५४॥
पअनन्दिपञ्चविंशतिका । अर्थः-जिसप्रकार कुम्भकारकाचाक जमीनके आधारसे चलता है तथा उसचाककी तीक्ष्ण धारा । रहती है और उसकेऊपर मिट्टीका पिण्ड भी रहता है तथा बह चाक नानाप्रकार के कुसूल स्थास आदि धटके विकारोंको करता है उसहीप्रकार संसाररूपीचाककी आधार यह खी है अर्थात् यह स्त्री न होती तो कदापि संसारमें भटकना न फिरता तथा इससंसाररूपी चाकमें अत्यंततीक्ष्णदुःखोंका समूह ही धार है अर्थात् संसारमें नानाप्रकारके नरकादिदुःखोंका सामना करना पड़ता है और इससंसाररूपीचाकके ऊपर नानाप्रकारके जीव जो हैं वे ही पिण्ड हैं तथा पहसंसाररूपीचा पेष मनुष्यादि नानाप्रकारके विकार कराकर जीवोंको भ्रमण कराने वाला है अतः स्त्री ही संसारचक्रकी कारण है इसलिये जो मोक्षका अभिलाषीमनुष्य उनस्त्रिोको माता बहिन पुत्रीकेसमान मानता है उसहीके उत्कृष्टधर्मका भलीभांति पालन होता है अतः ब्रह्मचारीमनुष्योंको चाहिये कि वे कदापि स्त्रियोंकेसाथ सम्बन्ध न रक्खे ॥१०४॥
मालिनी _ अविरतमिह तावत्पुण्यभाजो मनुष्या हृदिविरचितरागाः कामिनीनां वसन्ति । __कथमपि न पुनस्ता जातु येषां तदंघीः प्रतिदिनमतिनम्रास्तेऽपि नित्यं स्तुवन्ति ॥१०५॥
अर्थः-जो पुरुष निरन्तर स्त्रियोंके हृदयमें प्रीति उपजावनेवाले हैं अर्थात् जिनको स्त्रियां चाहती हैं यद्यपि वे भी संसारमें धन्य हैं परन्तु जिनमनुष्योंके हृदयमें स्रियां स्वप्नमें भी निवास नहीं करतीं वे उनसे भी अधिक धन्य है तथा उनवासरागीपुरुषोंके चरणकमलोंको स्त्रियोंकेप्रियपात्र बड़े २ चक्रवर्ती आदि भी शिर झुकाकर नमस्कार करते हैं इसलिये जिनपुरुषोंको संसारमें अपनी कीर्तफैलानेकी इच्छा है उनको कदापि स्त्रियोंके जालमें नहीं फसना चाहिये ॥१.५॥
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